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________________ ११60 जीवाभिगमसूत्र यायाः शर्कराप्रभायाः पृथिव्याः अधस्तनचरमान्तात् यावज्जानन्ति पश्यन्ति । 'एवं बंभलोगलंतकदेवा वि' एवमेव-ब्रह्मलोकलान्तकदेवावपि जानतः पश्यतः। नवरम्-'अहे जाव तच्चाए पुढवीए' उत्कर्पतोऽधो यावत्तृतीयस्याः पृथिव्याः। 'महासुक्क सहस्सारगदेवा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवोए हेहिल्ले चरिमंते' महाशुक्रसहस्रारकल्पदेवाः चतुर्थ्याः पङ्कप्रभायाः पृथिव्याः अधस्तनं चरमान्तं यावज्जानन्ति पश्यन्त्यूत्कर्षतः । 'हेटिम मज्झिम गेवेज्जगदेवा छहीए तमप्पभाए पुढवीए हेटिल्ले-चरिमंते' अधस्तनमध्यमग्रैवेयकदेवा उत्कर्षतश्च पष्टयास्तमप्र जाव दोच्चाए संकरप्पभाए पुढवीए हेडिल्ले चरिमंते' वे अधोलोक की अपेक्षा द्वितीय पृथिवी शर्कराप्रभा के अधस्तन चरमान्त तक जानते देखते हैं । 'एवं बंभलोग लंतए देवा वि' इसी तरह से ब्रह्मलोक और लान्तक देव भी जानते हैं और देखते हैं-परन्तु अधोलोक की अपेक्षा वे 'तच्चाए पुढवीए तृतीय पृथिवी के अधस्तन चरमान्त तक जानते हैं और देखते हैं 'महासुक्कसहस्सारगदेवा चउत्थीए पंकपभाए पुंढवीए हेडिल्ले चरिमंते' महाशुक्र और सहस्सार देव चतुर्थ पंकप्रभा पृथिवी के अधस्तन चरमान्त तक जानते और देखते हैं "आणय पाणय आरणच्चुय देवो अहे जाव पंचमीए पुढवीए धूमप्प भाए हेडिल्ले चरिमंते' आनत प्राणत आरण और अच्युतदेव पंचमी प्रथिवी के अधस्तन चरमान्त तक जानते और देखते हैं 'हेट्टिममज्झिमगेविज्जा देवा छट्ठीए तमप्पभाए पुढवीए हेहिल्ले चरिमंते' अधस्तन छ मन मे छे. परंतु 'अहे जाव दोच्चाए सकरप्पभाए पुढवीए हेदिल्ले चरिमंते' તેઓ અલેકની અપેક્ષાએ બીજી શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ચરમાન્ત सुधी न छे भने हे छ./ 'एवं बंभलोगलंतकदेवा वि' मे प्रमाणे બ્રહ્મલેક અને લાન્તક કલ્પના દેવે પણ જાણે છે અને દેખે છે. પરંતુ અને शानी मपेक्षाथी तम्या 'तच्चाए पंकप्पभाए पुढवीए हेट्टिल्ले चरिमंते' श्रील पृथ्वीना नीयना समान्त सुधी १ लणे छ मने हेणे छे. 'महासुक्क सहरसार देवा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेदिल्ले चरिमंते' माशु , मने સહસાર કલ્પના દેવ થી પંકપ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ચરમાન્ડ સુધી જાણે छ भने हे छ. 'आणयपाणय आरणच्चुयदेवा अहे जाव पंचमीए पुढवीए धूमप्पंभाए हेडिल्ले चरिमंते' मानत प्रात, मारण मने मयुत ४६५ना है। पांयमी पृथ्वीना नायना अभान्त ५५ - छ मन से छे. 'हेद्विम मज्ज्ञिमंगेवेज्जा देवा छवीए तमप्पभाए पुढवीए हेडिल्ले चरिमंते' AURतन
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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