SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 887
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेययोतिका का प्र.३ उ.३ १.५३ वनपण्डादिकवर्णनम् स्पतिविशेष स्तस्याः कुसुमम् अञ्जनकेशिकाकुसुमम् ‘णीलुप्पलेइ वा' नीलोत्पलमिति वा, 'णीलासोएइ वा नीलाशोक इति वा, ‘णीलकणवीरेइ चा' नीलकणबीर इति वा, ‘णीलबंधुनीवेएइ वा' नीलबाधुजीवक इति व', 'भवेएयारवे सिया' भवेत् तृणानां मणीनां च एतावदपो नीलो वर्णावासः किं स्यादिति गौतम वाक्यम् भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'णो इणटे साडे' नायमर्थः, समर्थः, 'तेसि णं नीळगाणं तणाणं मणीण य' तेषां खलु नीलानां तृणानां मणीना च 'एत्तो स्टतराए चेव' इत:-भृङ्गादेः इष्टतरक एच 'कंततराए चेव' कान्ततरक एव 'मणुमतराए चेव' मनोज्ञतरक एव 'मणामयराए चेव' मन आन्तरक एव, 'वण्णेणं पन्नत्तो' वर्णेन नीलो वर्णावासः प्रज्ञप्तः-कथित इति ।। इसका कुसुमनीलवर्ण का होना है ‘णीलुप्पलेह वा' जैसा नीला नीलो. स्पल नील कमल होता है। 'णीलामोएवा' जैसा न ला नील अशोक वृक्ष है ता है 'णीलकणवीरेइ वा जैसी नीली नीलकनेर होती है 'णील. बंधुजीवे वा' जैसा नीला नील ब.धुजीवक होता है तो क्या, हे भदन्त ! वहां के तृण और मणियों का ऐसा ही नीलवर्ण होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है । गोयमा ! णो हणढे सन?' हे 'गौतम | ऐसा अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'तेलिणं णीलगाणं तणाणं मणीण य' उन नीले तृणों को और मणियों का 'एत्तो इतराए चेव कंततराए चेव चण्णेणं पन्नतो' जो नीलाचर्ण है वह इन भृङ्गादिकों की अपेक्षा से बहुत अधिक इष्टतरक शान्ततरक और मनोज्ञनरक तथा मन आमतरक होता है अतः ये नीले तृण और मणि इल रंग से उन भङ्गादिको की अपेक्षा बहुत अधिक इष्ट तरफ आदि विशेषणों वाले होते है। से वनस्पति विशेषतुं नाम छे. मेनु ०५ नवन डाय छ 'नीलुप्पले इवा' नावोत्पल नाभलीय छ, णीलासोएइवा' नी म वृक्ष बाय छ, 'णील कणवीरे इबा' रवीनीस, नास ४२] हाय छे. 'जीलबंधुजीवेइवा' नीस मधु रे नी गर्नु साय छ तो है ભગવદ્ શું તે તૃણ અને મણિયે એવા નીલ વર્ણના દેય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री. गौतमत्वामीन से 3 'गोयमा ! इणट्रे सम' है गौतम । सा मथ थन सशसर नथी म तेसि णं णीळगाणं तणाणं मणीण य' से दीवात। मने भशियाना 'एत्तोइतराएचेव वण्णेणं पण्णत्ता'२ લીલે વર્ણ છે તે આ ભૂંગ-ભમરા વિગેરેના કરતાં ઘણો વધારે ઈષ્ટતર, કાંતતરક, અને મનેzતરક તથા મન આમતરક હોય છે, તેથી આ નીલ વર્ણના તૃણ અને મ િઆ ભૂંગ-ભમરા વિગેરેના રંગ કરતાં પણ ઘણાજ વધારે ઈષ્ટતર કાંતતરક, વિગેરે વિશેષાવાળા હોય છે. •
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy