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औवामिगम चम्मेइ वा वराहचर्म इति वा, 'सीहचम्मेइ वा सिंहचर्म इति वा, 'दग्घचम्मेइ वा' व्याघ्रचर्मेति वा, 'विगचम्मेइ. वा' वृकचर्मेति वा, 'दीवीचम्मेइ वा द्वीपि-चित्रकस्तस्य चर्मेति वा, 'अणेग संकु कोलगसहस्सवितते' अनेकशङकुकीलकसहस्रक्तिता एतेपामुरभ्रादीनां प्रत्येकं चर्म अनेकैः शङ्खपमाणैः कीलकसहसः महद्भिः कीळकरताडित पायो मध्य क्षामं भवति न समतलं भवति, अतः शङ्खग्रहणम्, विततं-विततीकृतम् ताडितं सद् यथाऽत्यन्त बहुसमं भवति तथा तस्यापि वनपण्डस्पान्तवहसमो भूमिभागः । पुनः कथंभूतो भूमिमागस्तत्राह-णाणाविह पंचवन्नेहि' इत्यादि, 'गागाविह पंचवण्णेहि तणेहि य मणोहि य उवलोभिए' नानाविध पञ्चवर्णैस्तृणैश्च मणिमिवोपशोमितः कथंभूत रतैः ? तत्राह-'अक्ड' वा' उसनवाषा में बैलका नाम है 'वराह चम्मेइ वा वराह नाम सुअर का है 'सीह चम्मेह वा सिंहा नाम शेर का है। 'बग्घ चम्मेवा व्याघ्र नाम सिंह की ही एक जाति के जानवर का नाम है, 'विगचम्मेह वा' वृकनाम भेडिया का है 'दीवि चम्मेह वा द्वीपीनाम चीत्ता का है 'अणेग संकुशीलग सहस्सावितते' इन सब जोनवरों का चमडा शङ्कुप्रमाण बडी २ हजारों कीलों से जव तक ताडित नहीं होता है तव तक वह समतल वाला नहीं होता है, किन्तु वह मध्य में क्षाम-पतला-रहता है
और जब वह-ताडित होता है तब वह वहुसम हो जाता है, अतः जिस प्रकार इन लवका चमडा इस प्रकार से ताडित हो जाने पर समतल वाला हो जाता है, उसी प्रकार से इस वनखंड का भी भीतरी भूमि भाग समतल वाला है 'नाणाविद पंचमण्णे ितणेहिं य मणीहिय उव. सोभिए' यह भूमिभाग नाना प्रकार के पंचवर्णों वाले तृणों से एवं
से भूमि समतल छ ०४ Na 'उसभचम्मेइ वा' वृषम अर्थात् मण 'वराहचम्मे इशा' १२॥ (सु) सुवरने ४ छे. 'सीइचम्मेइ वा' सिह 'वग्धचम्मे इवा' पा से मिनी जतनाम छ. 'विगचम्मेइ वा' १४ अर्थात् ५४ 'दीविचम्मेइ वा' दीपि से वित्तानु नाम छ 'अणेग संकुकीला सहस्ववितते' मा मा नवरानु याम शा भाटा मोटर &रे। ખીલાથી જ્યાં સુધી ટીપવામાં આવતા નથી ત્યાં સુધી તે સમતલ બનતા નથી. પરંતુ તે મધ્યમાં પાતળા રહે છે. અને જ્યારે તે ટીપાય છે, ત્યારે તે એક દમ સમ સરખા બની જાય છે. તેથી જે રીતે આ બધાનું ચામડું એ રીતે ટીપાયા પછી સમતલ બને છે, એ જ પ્રમાણે એ વનખ ડની અંદરને ભૂમિ मास समनपाणे .य छे 'नाणाविह पंचवण्णेहि तणेहि य गणीहिय उव सोभिए' मा भूमि अने: ५५९ना पय पवाणा तयाथी भने भणिय।