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________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ . ४२ एको) डिवडमर - प लहादिनिरूपणम् ६७१ इति वा, दिनद्वयमन्तरे मुत्वा तृतीयदिनग्राहीज्वरः 'वेयांतर' इति प्रसिद्धः, 'तेयाहियरगहाइ वा' व्याहिकग्रह इति वा, दिनत्रयमन्तरे मुत्वा चतुर्थदिनग्राहीज्वर: 'तेजरा' इति प्रसिद्धः 'चाउत्थगाहियाइ वा' चतुर्थीहिकग्रह इति वा, दिनत्रयमन्तरे मुक्त्वा चतुर्थ दिनग्राहीज्वरः 'चोथियाज्वर' इति प्रसिद्धः 'हिययलाइ वा ' हृदयशूलमिति वा, हृदये शुलरूपेण जायमानो रोगविशेषः । एवम् ' मत्थगनुलाइ चा' मस्तकशूलमिति वा 'पाससूलाइ वा' पार्श्वशूलमिति वा, 'कुच्छिमूलाइ वा ' कुक्षिशुलमिति वा, 'जोणिस्लाइ वा' योनिशुलमिति वा, 'गाममारी वा' नाममारी इति वा, 'जाव संनिवेसमारीइ वा, यावत् सन्निवेशमारी इति वा, अत्र यावत्पदेन 'आकर नगर - खेटकबंटमडंब - द्रोणमुख-पत्तनाऽऽश्रम संवाहानां संग्रहः तेन - आक रमारीति वा नगरमारीति वा, इत्यादि पदेषु मारी शब्द संयोजनेनाऽऽलापको विधातव्य इति । एभिरिंद्रग्रहादिभिस्तत्र 'पाणक्खयजाव वसणभूयमणारियाई वा ' प्राणक्षय यावत् जनक्षयकुलक्षयधनक्षयव्यसनभृतानाय इति वेति प्रश्नः, भगवाferrett at surfहक ग्रह-दोदिन छोड़कर आने वाला वे आन्तरा ज्वर रोग 'तेयाहियग्गहातिवा' व्याहिक ग्रह -तीन दिन के बाद आने वाला तेजराज्वर 'चाउरथगाहियाइ वा' चौथियाज्वर 'हिययसलाइ वा ' हृदय शूल - हृदय रोग, 'मत्यगसूलाइ वा' मस्तक शूल - मस्तक का रोग, 'सलाइ वा' पार्श्वशुल पसलिका दुखना 'कुच्छिलाइवा' उदर रोग, 'जोणिस्लाइ वा' योनिशूल 'गाममारोह वा' 'ग्रामारी - ग्राम में मारी मरकी आदि होना 'जाव सन्निवेलमारीइ वा' यावत् आकर मारी नगरमारी एवं खेट कर्वट महम्वद्रोण मुख पट्टन, आश्रमसंवाह सन्निवेशमारी इन इन्द्र ग्रहादिरोगो से वहां 'पाणक्खय जाव वसणभूय्मणारिवाइ वा' प्राणक्षय, यावत् - कुलक्षय एवं धनक्षय, ये सब कष्ट भूत अनार्य यह मे हिवसने यांतरे भावनाशे ताव 'तेयाहियग्गहातिवा' त्रायु हिवसने यांतरे भावना। ताव “चाउत्थगाहियाइवा' या थियो ताव 'हियय सूलाइवा' (हृदयशूत हृदयरोग 'मत्थसूलाइवा' भस्तम्शूस भाथाने रोग 'पाससूलाइव।' पार्श्वशु पांसनीय दुःवी ते 'कुच्छिसूलाइवा' उ४२रोग 'जोणिसूलाइवा योनीशुल 'गापमारीइ वा' ग्रामभारी भरडी विगेरे ने आभा गाभभां देसाई नार होय छे तेवा रोग 'जाव सन्निवेसमारीइवा' यावत् आरभारी नगर भारी शेव भेटभारी, उट भारी, भठभ्य, द्रोण पट्टन आश्रम संवाडे, સન્નિવેશમારી, વિગેરે રાગા ત્યાં હાય છે? તેમ આ ઇંન્દ્રગ્રહ વિગેરે રાગેથી त्यां 'पाणक्य जाव वखणभूयमणारियाडवा' आयुक्षय यावत् सक्षय तथा પનક્ષય આ બધા કષ્ટ કારક અના ઉપદ્રવે ત્યાં હ્રાય છે ?
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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