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________________ .५७८ जीयामिगमसूत्र 'भुयगीसर विपुलभोग आयाण फलिह उच्छूढदीवाह' भुजगेश्वर विपुळ मोगा दान परिघोरिक्षप्त दीर्घवाहवा, तत्र भुजगेश्वर -सर्पराजस्तस्य विपुलो यो भोगः शरीरम्-तथा-यादीयते-द्वारस्थगनाथ गृयन्ते इत्यादानः स चासौ परिधोऽगंठा 'उग्छूढत्ति' उक्षिप्तः स्वस्थानादुक्षिप्त जीकृनः निष्कास्य ततो द्वार पृष्ठमागे दत्त इत्यर्थः तद्वद् दीघो-लम्बायमानौ बाहू येषां ते तथा, 'जूयसन्निपीणरतियपीवरपउछ संठियमुसिलिट्ट निसिघण थिर सुबद्ध सनिगूढ पञ्चसंधी' यूपसन्नि. भरतिदपीवर प्रकोष्ठसंस्थित सुश्लिष्टविशिष्ट धनस्थिर सुबद्ध मुनिगृहपर्वसन्धयः तत्र यप सन्निमौ-युषः शक्राटावयवदिशेषः यो पम स्कन्धोपरिम्याप्यते उत्स. हशी वृत्तत्वेन आयतत्वेन च तत्तुल्यौ मांसलो रतिदौ पश्यतां दृष्टिसुखदी पीवर भकोष्ठको अकृशकलाचिकौ येषां ते तथा सस्थिता:-संस्थानविशेपवन्तः मश्ष्टिाः सुघना: विशिष्टा:-प्रधानाः, घना निविडाः, स्थिरा:-नातिश्लयाः, मुबदाः स्नायुमि:-सुष्टु नद्धाः, निगढाः पर्वसन्धयः-अस्थिसंधानानि येषां ते तया, होता है इनकी दोनों भुजाएँ महालगर के अर्गला के जैसी लम्बी होती हैं । इनके दोनों बाद शेषनाग के विपुल शरीर के जैसे एवं स्वस्थान से खंचकर द्वार पृष्ठ में दिये गये परिघ के जैसे लम्वे होते हैं। 'जूपसन्निभपीणरतिय पीवरपउनु संठिय सुसिलिट्ठ विसिढ घणधिर सुबद्ध सुनिगूढपवलंधी' इनकी दोनों हाथों की कलाईयां इथेली गोल और लम्बी होने से युग बैलों के कन्धे पर रखे जाने वाला जुना के जैसी मज व्रत होती है, मांसल होती है देखने वालों को आनन्दप्रद होती हैं और पतली नहीं होती हैं तथा इनकी अस्थि संधियां संस्थान विशेष संपन्न होती है सुश्लिष्ट होती हैं सघन होती हैं उत्तम होती है पास-पास में होती हैं स्थिर होती है अति शिथिल नहीं होती हैं और स्नायुषों से अच्छी तरह वे जकडी हुई होती है एवं निगूढ रहती है। 'रत्तनलोवड्य હોય છે. તેઓની બનને ભુજાઓ મહાનગરની અર્ગલાના જેવી લાંબી હોય છે. તેમના બને બાહૂ શેષનાગના વિશાળ શરીરના જેવા અને સ્વસ્થાનથી ખેંચીને द्वा२ पटमा साववामां आवत परिधना 24 मा हाय छे 'जयसन्नि भपीणरतियपीवर पउ8 संठिय सुसिलिठ्ठ विसिट्ठ धणथिर सुबद्ध सुनिगूढ पव्वसंधीं' તેમના બને હાથના કાંડાઓ ગાળ અને લાંબા હોવાથી યુગ બળદના ખાંધ પર રાખવામાં આવતા જૂચરાના જેવા મજબૂત સહામણું હોય છે. અને માંસલ પુષ્ટ હોય છે. જેવાવાળાને ખૂબજ આનંદ આપનાર હોય છે. અને પાતળા હૈતા નથી. તથા તેના હાડકાને સંધી ભાગ સંસ્થાન વિશેષથી સંપન્ન હોય છે સુશ્લિષ્ટ હોય છે સઘન હોય છે. ઉત્તમ હોય છે નજીક નજીક હોય છે સ્થિર હોય છે. અત્યંતશિથિલ હતા નથી, અને સ્નાયુઓથી સારી રીતે જકડાયેલ
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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