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________________ जीवामिगमस्ने परिणयाए भूसणविहीए उबवेया' अनेक न्हुविविध विस्रसापरिणतेन भूपणविधिनोपेताः-युक्ताः, फलैपूर्णा 'विसति' दलन्ति-विकसन्तीत्यर्थः, 'कुसविकस वि० जाव चिट्ठति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्षम्ला मूलवन्तः कन्दवन्तः यावत् मासादीया दर्शनीया अभिरूपाः प्रतिरूपास्तिष्ठति । इत्यष्टमकल्पवृक्षवर्णनम् ।८। _'एगोरुय णं दीवे तत्थर' एकोरुकद्वीपे तत्र तत्र खल 'वहवे गेहागारा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!' बहवः गेहाकारा नाम द्रुमगणाः पल्पवृक्षाः प्राप्ताःकथिताः हे श्रमण आयुष्मन् ! 'जहा से' यथा ते 'पगारट्टालग चरियदारगोपुर बहुप्पगारा तहेव ते मणियंगा वि दुमगणा अणेग यहुविविहवीससा परिणताए भूसणविहीए उववेया कुस वि० जाच चिटुंति' और कनक निकर मालिका, ये सब ही आभूषण हैं और ये कितनेक सुवर्ण की रचना से, कितनेक मणियों की रचना से और कितनेक रत्नों की रचना से चित्रित सुंदर होते हैं। इनकी जातियां अनेक प्रकार की होती है। इसी प्रकार से ये मण्यङ्गनाम के कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार की भूषण जातियों के रूप स्वतः स्वभाव से परिणत हो जाते हैं वाकी के 'कुस विकुस' आदि पदों का अर्थ स्पष्ट है ॥८॥ ९ नौवें कल्पवृक्ष के स्वरूप का वर्णन__'एगोरुय दीवे तत्थ २' उस एकोरुक नामक द्वीप में जगह २, 'बहवे गेहागारा णाम दुमगणा पणत्ता समणाउसो' हे श्रमण! आयुष्मन् ! अनेक गेहाकार नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं। वे किस प्रकार के होते हैं वह दृष्टान्त से समझाते हैं-'जहा से पागारद्यालग यगा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणताए भूसणविहीए उववेया कुसविकुम जाव चिटुंति' भने उन नि४२ भाति, मा या माभूषर વિશેષ જ છે. અને તે પૈકી કેટલાક સેનાની રચનાથી તથા કેટલાક મણિયની રચનાથી અને કેટલાક રત્નોની રચનાથી ચિત્ર વિચિત્ર સુંદર જણ ય છે. તેની અનેક પ્રકારની જાતો હોય છે. એ જ પ્રમાણે આ મર્યાગ નામને કલ્પવૃક્ષો પણ અનેક પ્રકારના ભૂષના રૂપથી સ્વતઃ પિતાની મેળેજ એટલેકે સ્વાભાવિક રીતે જ પરિણુત થઈ જાય છે. બાકીના કુશ વિકુશ વિગેરે પદનો અર્થ સ્પષ્ટ છે ૮ हवे नमः ४६५वृक्षना २१३५० वन ४२वामां आवे छे. 'एगोरुय दीवेणं दीवे तत्थ तत्य' 2 ॥३४ नामना द्वीपमा स्थणे स्थगे 'बहवे गेहा गारा णोम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' श्रम आयु भन् ! गेडा२ न'भना અનેક કલ્પવૃક્ષ કહેવામાં આવેલ છે. તે કેવા પ્રકારના હોય છે? તે દૃષ્ટાંત २। सूत्र४२ मतावे छे. 'जहा से पागारट्टालगचरियदार गोपुर पामाया
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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