SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.५ रत्नप्रभाथिव्या क्षेत्रच्छेदः गंभंते ! एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पमाए पुढवीए' रस्नषभायाः पृथिव्याः 'पंकबहुलस्स कंडस्स' पङ्कबहुलनामकस्य काण्डस्य 'चउरासीइ जोयणसहरस वाह लस्स' चतुरशीतियोजनसहस्रबाहल्यस्य 'खेत्तच्छे रण तं चेव' क्षेत्रच्छेदेन च्छिद्यमानस्य द्रव्याणि वर्णतः काळादिना, गन्धतः सुरभ्यादिना, रसतस्तिक्तादिना, स्पर्शतः कर्कशादिना, संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि भवन्ति किमिति प्रश्नः, इन्त सन्तीति पूर्ववदेवोत्तरम् 'एवं आबबहुलस्स वि असोइ जोयणसह. स्सवाइल्लस्स' एवं पङ्कबहुलकाण्डवदेव रत्नप्रभायां पृथिव्यं विद्यमानस्याबहु. लस्यापि अशीतियोजनसलस्रबाहल्यस्य क्षेत्रच्छे इन छिद्यमानस्य द्रव्याणि वर्णत: होता है इत्यादि कथन जानना चाहिये। 'हमीसे णं भंते ! रयणपभाए पुढवीए पंक बहुलकण्डस्ल चउरासो योजणसहस्स पाहल्लस्स' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के पङ्कमहुल. काण्ड के जो कि चौराली हजार योजन की मोटाई वाला है 'खेत्तच्छे. एण तं चेव' जब केवली की बुद्धि ले क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करते हैं तो उनके द्रव्यों का परिणाम वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभिम आदि रूप से, रस की अपेक्षा तिक्तादि रूप से, स्पर्श की अपेक्षा फर्कशादि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमउल आदि रूप से होता है क्या? तथा परस्पर संबद्ध आदि होते हुए रहते हैं क्या? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंगा अस्थि हां गौतम ! होता हैं एवं आन्द बहुलास बि असीड जोयणलहस्स बाह. ल्लस्स' इसी प्रकार से अस्सी हजार योजन की मोटाई वाले अपहल પરિણામવાળા હોય છે. વિગેરે પ્રકારનું કથન સમજવું. __ 'इमीसे गं भंवे! रयण पभाए पुढवीए पंकबहुल कंडस्स चउरासी जोयणसहस्स बाहल्लस्स' हे भगवन् २॥ २त्नमा पृथ्वीना ५'महुरे यार्याशी M२ योननी ants पामे छे. 'खेत्तच्छेएण त चेव' वकीनी भुद्धिथा જ્યારે ક્ષેત્રચ્છેદના રૂપમાં વિભાગ કરવામાં આવે તે તેના પ્રત્યેનું પરિણામ વર્ણની અપેક્ષાથી કાલાદિપણાથી, ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ વિગેરે પણાથી રસની અપેક્ષાથી તિક્તાદિ પણાથી સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશાદિ પણાથી અને સંરથાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે રૂપથી હોય છે ? ___मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतभस्वामी ४ छ । 'हता 3 त्थि' है। गौतम ! ते प्रभारी डाय छे. “एवं आव वहुलस्सवि असीइ जोयणसहस्स बाहરાણ' આ પ્રમાણે એંસી હજાર જનની જડ ઈવાળા અમ્બહુલકાંડના ક્ષેત્ર
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy