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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.३३ दाक्षि० मनुष्याणामेकोषकद्वोपवर्णनम् ५०१ म्भेण वेदिका समेन-वेदिका तुल्येन परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । 'सेणं वणसंडे किण्हे किण्डोभासे' स खलु वनषण्डः कृष्णः कृष्णावभासः, ‘एवं जहा रायपसेणईए वणसंडवण्णभो' एवं यथा राजमश्नीये वनपण्डवर्णकः 'तहेच निरवसेसं भाणिय' तयैव निरवशेष भणितव्यः 'तणाणय वण्ण गंध फासो, सदो तणाणं वावीओ' तगानाञ्च वर्णगन्धस्पर्शः, शब्द स्तृणानाम्, अत्र तृणानां शब्दो वाच्यः अन्यत्र-'वणसंड वण्णओ तण सदं बिहूगो नेवो' इति वर्तते । तथा-वाप्यः 'उप्पोय पन्चया' उपपातपर्वताः 'पुढवीसिलापट्टगाय' पृथिवीशिलाकाश्च 'माणियन्या' भणितव्याः कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि, 'जाब तत्थ णं की गोलाकार चौडाई पाला है । और इसकी परिधि का विस्तार वेदिका के बराबर है। 'से ग वणसंडे शिहोभासे एवं जहा रायपसेणईए वणसंडवण्णो तहेव निरवसेसं भाणियव्यं' यह वन षण्ड घहुत अधिक घन होने के कारण काला दिखता है और प्रकाश भी इससे काला ही निकलता है। इसका इस प्रकार का वर्णन रायालेणी सूत्र में किया गया है-सो वह सब वर्णन यहां पर भी कह लेना चाहिये. 'ताणाण य बण्णगंधफासोस हो तणाण, बादीओ इप्पाय पश्या पुढवि. सिला पट्टगाय भाणियव्या जाव तत्थ ण बहवे देवाय देवी मोय आप्तयंति जाब विहरति' यहां के तृणों का वर्ण, गन्ध, स्पर्श और तृणों का शब्द इन सब का तथा वापिकाओं का और उपपात पर्वनों का और पृथिवी शिला पट्टको का जो कि यहां पर वर्तमान है वह सब वर्णन भी कर लेना चाहिये यावत् यहाँ अनेक वानन्यन्तर देवी एवं देवता પંડ દેશઉન, કંઈક કમ બે જનના ગોળાકાર પહોળાઈ વાળું છે અને તેની परिधिना विस्तार हानी मराम२ छे. 'से ण वणसंडे किण्हे किण्होभासे एवं जहा रायपसेणइए वणसवण्ण) तहेव निरवसेस भाणियव्व' मा नष' धार ગાઢ ઉંડુ હોવાના કારણે કાળું દેખાય છે. અને તેને પ્રકાશ પણ કાળા જ નીકળે છે. તેનું આ પ્રકારનું વર્ણન રાજપ્રશ્નીય સૂત્રમાં કરવામાં આવેલ છે. તે से मधु' त्यानुन मडियां ५५ समझ से 'तणाण य वण्ण गंध फासो महोतणा णं बहवे देवाय देवीओ य आसयाति जाव विहरति' महिना तृऐना વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શ અને તૃણના શબ્દ આ બધાનું અને વાવડિયાનું અને ઉપપાત ૫તેનું અને પૃથ્વી શિલાપટ્ટનું કે જે અહિયાં વર્તમાન છે, એ બધાનું વર્ણન પણ કરી લેવું જોઈએ. યાવતું અહિયાં અનેક વાવ્યતર દેવ
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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