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________________ प्रमेययोतिका टीका प्र. ३७.२ लू.२१ नारकाणां नरकभवानुर्भवननिरूपणम् ३१५ रिति वा 'तुसागणी वा' तुषाग्निरिति वा 'तत्ताई' इत्थंभूतानि यानि स्थानानि मनुष्यलोके तानि तानि वह्नि संपर्कत स्वप्तीभूतानि तानि च कानिचित् अय आकर प्रभृतीनि कदाचिदुष्ण स्पर्शमात्राण्यपि संभवन्ति ततो विशेष प्रतिपादनार्थमाह - 'समजोइभूयाई' ज्योतिः समभूदानि मखरवह्निसंपर्कात् साक्षादग्निवर्णानि जातानि एतदेव सादृश्येन दर्शयति- 'फुल्ल किसुयसमाणाई' फुल्लकि शुकसमानानि प्रफुल्लरला कुसुम तुल्यानि ' उक्कासहस्साई विणिम्यमाणा " उल्कासहस्राणि विनिर्मुच्यमानानि ये मूलाग्नितो वित्रुय अग्निकणाः प्रसर्पन्ति ते उल्का इति कथ्यन्ते तासां साहस्राणि प्रमुञ्चन्ति, 'जालासहस्साई पमुच्चमाणाई' ज्वालासहस्राणि प्रमुच्यमानानि 'इंगालसस्साई पविक्खरमाणाई' अङ्गार 'तुसामणीहवा' तुषकी अग्नि हत्यादि' ' तत्ताई' ये सब स्थान मनुष्य लोक में बह के संपर्क से संतप्तबने हुए रहते हैं. इनमें कितनेक लोहे के लाने के भट्टे आदि रूप स्थान - उष्ण स्पर्श मात्र वाले भी होते हैं, अतः इनकी विशेषता दिखलाते हैं वे स्थान और वे अग्नि किस प्रकार के होते हैं ? सो कहते हैं- 'समजो इभ्याई' ये साक्षात् अग्नि के ही स्थानापन्न हो रहे है । इनका जो वर्ण है वह 'फुल्ल किंसुयस माणाई' फूले हुए किंशुक पलास के फूल जैसे लाल २ प्रतीत होता है 'उक्का सहसा विणिमाणाई' जो हजारों उल्काओं (मूल अग्नि से टूट टूट कर स्फुलिंग को निकाल रहे ) 'जाला सहस्साई पमुच्चमागाई' ये स्थान हजारों ज्वालाओं का ही मानों वमन कर रहे हैं 'इ' गाल सहरलाई पक्खिरमाणा ' हजारों अंगारों को ही अपने गणीइ वा' तसनी व्यक्ति 'तुलागणीइ वा' तुषनी अग्नि ४त्याहि 'सत्ताई' म બધા સ્થાનેા મનુષ્યલેાકમાં અગ્નિના સપથી તપેલા રહે છે. આમાં કેટલાક લાઢાને ઓગાળવાના ભટ્ટા વિગેરે રૂપ સ્થાનેા ઉષ્ણુ સ્પર્શ માત્ર વાળા પશુ હાય છે. તેથી તેની વિશેષતા ખતાવતાં તેવા સ્થાને અને તેવી અગ્નિ કેવા अारना हाय हे? ते बतावे छे. 'समजोंइभूयाई' ते स्थान साक्षात् अग्निना स्थानापन्न होय छे. तेना ने वागु छे, ते 'फुल्लकि सुयस माणाइ" बेला કિંશુ–પલાશના ફૂલા જેવા અર્થાત્ કેસુડાના જેવા લાલ લાલ દેખાય છે, 'उक्काखहस्साइ बिणिम्मुयमाणाइ" હુજારા ઉલ્કાઓ (મૂળ અગ્નિથી छूटेसा स्टुसिंग अग्निने महार हाडे छे. 'जाला बहरसाई' पमुच्चमाणाई' આ સ્થાનેા હજારા વાલાઓને જ જાણે વમન કરતા ન હૈાય તેવા હાય છે, 'इंगाल सहस्सा ई' पविकखरमाणाई' हमरो मगारामने पोतानी महस्थी
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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