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________________ ३०८ जीवामिगमहले 'उहामिहए' उष्णाभिहता- सूर्यखरकिरणयतापपरिभूतः, अतएकोष्णः सूर्यकिरणः प्रतप्ताङ्गतया शोषणभावतः 'तहासिहए' तृपाभिहतः तत्रापि पानीयगवेषणार्थमिवस्ततः स्वेच्छया परिभ्रमतः कश्चिद्दावाग्निमत्यासत्त गमनतः 'दाग्निकालाभिहतः अतएव 'आउरे' आतुरा क्वचिदपि स्वास्थ्यमलममानः सन् भाकुलः 'मुसिर' शुपितः सर्वाङ्गपरितापसंभवेन गलतालुशोपणभावात् शुपितः। 'पिवासिए' पिपासिता-असाधारणतपावेदना समुन्छळनाद पिपासितः, अत एव 'दुबले' दुर्वल: शारीरमानसावष्टम्मरहितत्वाद् बलहीना, अतएव 'किलंते' क्लान्ता-ग्लानिमुपगतः एतादृशः कुञ्जर। 'एगं म्हं पुक्खरणि' एकां महतीं पुष्करणीम् पुनरपि किं विशिष्टा तत्राह-'चाउकोणं' चतु.कोणाम् चरवारः समय में अर्थात् ज्येष्ठ मास में 'डाभिहए' धूपसे तप्त होकर-सूर्य की तीक्ष्ण प्रताप से परिभूत होकर 'तण्हाभिहए' 'प्यास से आकुल पाकुल हो जाता है-तब वह अपनी इच्छाले पानी की गवेषण करता छुआ इधर से उधर फिरने लगता है इधर-उधर फिरता हुआ वह हाथी जो जंगल में लगी हुई अग्नि से परितप्त हो चुका है,-पीडित-हो-चुको है-किसी भी तरह से जिले चैन नहीं पड रही है जिसके 'सुसिए' कण्ठ और ताल दोनों सूख गये हैं 'पिवासिए' असाधारण तृषा वेदना से जो पार वार तडफडा रहा है 'दुव्बले शारीरिक स्थिरता और मानसिक स्थिरता से जो एक तरह से रहित सा हो चुका है और इसी से जिसका शरीर किलंते' अपने शरीर के भार को वहन करने में ग्लानिका अनु 'भव करने लगा है जब 'एगं महं पुक्खरणि' एक विशाल पुष्करिणी को 'पासई' देखता है कि जिसके 'चाउकोणं' चार कोणे हे 'समतीरं' जिसकी अर्थात २४ महिनामा 'उण्हाभिहए' तपथी तपान सूर्य ना तय ताथी ५२म पाभान 'तण्डाभिहए' तरथी व्याकुल थय छे. त्या तानी ઈચ્છાથી પાણીની શોધ કરતાં કરતાં આમ તેમ ફરવા મંડે છે. આમ તેમ ફરતાં ફરતાં, તે હાથી કે જે જંગલમાં લાગેલ આગને લીધે ખૂબજ તપાય માન થયેલ છે, પીડા ૫ પે છે, જેને કોઈ પણ પ્રકારે ચેન પડતું નથી અને रना सुसिए' गणु भने त भन्ने सू या हाय, अने 'पिवासिए' असाधारण नरसनी वहनाची २ वारवार तरती २ छ, 'दुव्बले' शारी સ્થિરતા અને માનસિક સ્થિરતા વિનાને બની ગયેલ હોય, અને તેથીજ જેનું शरी२ 'किल ते' पाताना मारने पहन रखामा खानीना मनुल ४२41 सायुडाय, त अवस्थामा न्यारे 'एग महं पुक्खरणि' से मोटी ०२यीन मथात् सरोपरने 'पासई' मे छे, है न 'च उक्कोणं' या२ भूधामो छे. 'समतीर'
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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