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________________ जीवाभिगमसूत्रे ३४ हन्यात् संहृतं कुर्यात् पुनः पण्डितं कुर्यात् 'से णं ते' स खलु तम् अयः विडम् 'सी' श्रीतम् ल च पिण्डो निष्कासनमात्रेणापि संभवेदत आह- 'सोवीभूतं शीविभूतं सर्वात्मना शीतत्वेन परिणतम् 'अयोमपणं संपूर्ण महाय' अयोमयेन प्रोदनिर्मितेन संदंशकेन तमयः पिण्डं गृहीत्वा 'असम्भावपरणार' असद्भाव' मस्थापनया असद्भावकल्पनया नैतदभूत् न भवति न भविष्यति वा केवल मस तमेव कल्प्यते इति 'उसिणं वेयणिज्जेसु नरपस्ट पक्खिवेज्जा' उष्ण वेदनीयेषु नरकेषु तमयःपिण्डं प्रक्षिपेत् । ' से णं तं' स खलु तमयःपिण्डम् 'उम्मिसियः णिमिसियंतरेण' उन्मिति निमिषितान्तरेण 'पुणरवि पच्चुद्ध रिस्तामीति कटु' पुनरपि प्रत्युद्धरिष्यामि पतितं नरके अयःपिण्डं पुनरपि निःसारयिष्यामीति 'कृत्वा यावता अन्तरेण यावता व्यवधानेन निमेवोन्मेषौ क्रियेते तावदन्तरणमा C रहने देवे- इस तरह वह बिलकुल ठण्डा हो जायेगा-ठंडा हो जाने पर फिर वह उस गोले को 'अयोमपूर्ण संदंसण' गहाव' लोहे की साडसी से पकडकर 'असम्भावपट्टदणाए' असतकल्पना से-यदि ऐसा कभी नहीं हुआ है न होगा न होता है परन्तु अपने मन की कल्पना से ऐसी कल्पना कर लेना चाहिये और उस कल्पना के अनुसार संडासी द्वारा पकडे हुए, उस लोहे के गोले को वह 'उसिणवेदणिज्जेसु नरपसु पक्खिवेज्जा' उष्ण वेदना वाले नरकों में रख देवे 'से णं तं जम्मिसिय णिमिसियतरेण' रखते समय यह ऐसा विचार कर लेवे कि में इसे अभी २, पलक मारकर उघाडते ही 'पुणरवि पच्चरिस्तामीतिः कट्ट' उठा लवंगा - इस विचार से वह उसे वहां रख देता है परन्तु निमिषोन्मेष करने के बाद ही ज्यों ही वह उसे निकालने के लिये प्रभाते मिल्स डी पडी लय त्यार पछी दूरी ते गेोजाने ' अयोमरण संसरणं गद्दाय' सोम उनी सांडसीथी पडीने 'असम्भावपट्टणाएं' अस म्हपनाथी જો કે આ પ્રમાણે કેઇ વખત થયુ' નથી, અને થશે નહી. તેમજ થતું પણ નથી પરંતુ પેાતાના મનની કલ્પનાથી એવી કલ્પના કરી લેવી જોઇએ અને तेन प्रभा सांडसीथी पाडेले ते बोउन गेलो ते 'उणि वेदणि 'जेसु नरपसु पक्खिवेज्जा' उष्णु वेदनांवाजा नारभां रावामां आवे 'सेणं त उम्मिसिय णिमिसियतरेण' अने तेवी रीते रामती वमते ते सेवा विचार ४२ है हु माने हम भट भारे तेसास 'पुणरवि पच्चु दूषरिस्सामीतिकट्टु' उठावी सशि से विचारथी ते ते गोजाने त्यां भूडी પરંતુ નિમેષેન્મેષ કર્યા પછી જ જ્યારે તે એ ગાળાને અહાર કહેાડવા
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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