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________________ - - - - जीवामिगमले वृत्तसन्धः तथा-'चम्मेगहणमुट्टिय समाहयणिचियगर गत्ते' चर्मेप्टक दुघणमौष्टिक समाहतनिचितगात्रगात्रा, तत्र चर्मेप्टकम्-इष्टकारखण्डादि पूर्णचर्म कुतुपः द्रुघणः-मुद्गरः, मौष्टिकमुष्टपरिमितं चमरज्जुपोतं पापाण गोलकादि, तैः चर्मेष्ट कद्रुघणमौष्टिकैः समाहतानि सम्यगाइतानि व्यायामसमये ताडितानि अतएव निचितानि निविडानि दृढाणि नत्राणि-अङ्गानि यत्र ताशं गात्रं-शरीरं यस्य स स चर्मेष्टकद्रुघणमौष्टिकसमाद्दतनिचितमात्रगात्रः। तथा-'उररसवलसमष्णागए' औरसवळसमन्दागतः,-उसि भवौरसम् आन्तरं यदलं-सामातिशयः, तेन समन्वागत:-समनुप्राप्त इति आन्तर सामर्थ्ययुक्त इत्यर्थः। 'छेए' छेको द्वासप्तति कलासु पण्डितः 'दक्खे' दक्षः-सार्याणामविलम्बितकारी । 'पट्टे' पष्टः-वाग्मी हितमितभाषीत्यर्थः । 'कुसले' कुशल:-सम्यक् क्रियापरिमानवान् । 'णिरणे निपुण:-चतुरः। 'मेधावी' मेधावी-परस्पराव्याहत पूर्वापरानुसन्धान दक्षः, अतएव निउणसिप्पोवगए' निपुणशिल्योपगतः निपुणं यथा भवति एवं शिल्पं क्रियासु कौशलमुपगतः प्राप्तो निपुणशिल्पोपगतः। एतादृशविशिष्टः यदि 'चस्मेहग हणमुहिय लमायणिचियगत्त गत्ते जिसका शरीर चमडे की वर्त्त के प्रहारों से मुद्गरों के प्रहारों से एवं मुष्टि के प्रहारों से खुत्र परिपुष्ट हो गया हो ऐसे पहलवान मनुष्य की तरह जिसका शरीर पुष्ट हो 'उरस्सपलसमण्णागर' जो आन्तरिक उत्तबार और घय से युक्त शे 'छेए' ७२ कलाओं में निपुण हो, 'दक्खे' कार्यों का अविलम्पकारी हो 'पट्टे' पृष्ठ-वाग्मी-हितमित भाषी हो 'कमले' कर्तव्य हार्यों का जिसे समीचीन रूप से ज्ञान हो 'णि उणे' निपुण हो "मेहावी' परस्पर में अव्याहत ऐसे पूर्वापर के अनुसन्धान करने में दक्ष हो 'णिउणसिप्पोचाए' अच्छी तरह से जिसे हर एक क्रियाओं में -- पूर्ण रूप से कुशलता प्राप्त हो चुकी हो-ऐसा वह लुहार का दारक णिचियगत्तगत्त' ने शरी२ यामाना यामुना प्रहारथी, मुद्राना પ્રહાથી અને મુષ્ટિકાઓના પ્રહારોથી ખૂબજ પરિપુષ્ટ થયેલ હોય એવા पसवान मनुष्यनी म रेनु शरीर पुष्ट छाय, 'उरस्सवलसमण्ण,गए' २ આન્તરિક ઉત્સાહ અને વીર્યથી યુક્ત હોય, “છે બોતેર ૭૨ કળાઓમાં નિપુણ -डीय दक्खे' । २पामा क्ष यतुर है।य, 'पढे' पाभी हित मने मित भाषी हाय, 'कुसळे' तव्य' नुरेने साशशते ज्ञान हाय, 'णितणे' निपुण होय, 'मेहावी' ५२२५२मा अभाव सेवा पूर्वापरतुं अनुसंधान ४२वामा 'बाय, "णिउणसिप्पोवगए' २२ १३ मा पाया पुणता प्राप्त थई यूडी खाय, वो वरना पुत्र 'एगं मह अयपिड' - घार
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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