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________________ १९६ जीवामिगमसूत्रे स्वद्वदिति वा 'कवियच्छ्रति दा' कपिकच्छूरिति वा, कपिकच्छुः कण्डू जनको वल्ली विशेष: 'कवाछु इति लोकप्रसिद्ध ' 'विच्छुप कंटपति वा वृधिक कण्टक इति वा 'इंगालेति वा' अङ्गार इति वा, अङ्गारो निर्धूमाग्निः । 'जाखेड़ वा' ज्वाळा इति वा ज्वाळा नळसंबद्ध 'मुम्मुरे वा' मुर्मुर इति वा मुर्मुरः फुफुकादौ म 'सृणाग्निः । अच्चीति वा' अर्चिरिति वा, अर्चिरनल विच्छिन्ना ज्वाळा । 'अलाएर वा अलातमिति वा, अलातमुल्मुकम् । 'सुद्धागणी वा' शुद्धाग्निरितिवा, शुद्धाग्निरय: पिण्डानुगतोऽग्निर्विद्युतादिव इति शब्दः परस्परसमुच्चये इह कस्यापि नरकस्य स्पर्शः शरीरावयवच्छेदकः, अपरस्य भेदकोऽन्यस्य व्यथाजनकोsपरस्य दाहकः इत्यादि साम्यप्रतिपत्यर्थ ससिपत्रादीनां नानाविधानाant 'विच्छुrice वा' वृश्चिक के डंक वा 'इंगालेति वा' निर्धूम अग्निका, ' जालेह वा' ज्वाला का 'मुम्मुरे वा' मुर्मुर अग्नि का, 'अच्चीति वा' अनिर्विच्छिन्न ज्वाला का 'अलाएइ वा' अलात जलते हुए काष्ट की अग्नि का, 'सुद्धागणी वा' शुद्ध अग्नि- तपे हुए लोह पिण्ड की अग्नि का या विद्युत आदि का जैला स्पर्श होता है गौतम ! पूछते है ? तो क्या 'भवेयास्वे लिया' हे भदन्त ! ऐसा ही स्पर्श उन नरकों का होता है ? यहां सूत्र में सर्वत्र इति शब्द उपमाभूत वस्तुके स्वरूप की परिसमाप्ति का सूचक हैं- - तथा 'वा' शब्द परस्पर में समुच्चय का वाचक है इसलिये वहां किसी नरक का स्पर्श शरीर के अवयवो का छेदक होता है किसी नरक का स्पर्श शरीर के अवयवों का भेदक होता है किसी नरक का स्वर्श व्यथा जनक होता है किसी नरक का स्पर्श दाह ४२'यने। (वेहने।) 'बिच्छु कंटए वा' वीछिता मते 'इंगालेति वा' मजाराना स्थर्शने। ‘जालेइ वा' अग्निनी न्यासानो 'मुम्मुरेह वा' भुर्भर अग्निना 'अच्चीति वा' अनिविच्छित सग्जिनी ल्वासानो 'भलाएइ वा' असातनाभ भजता लाउडानी अग्निना 'सुद्धागणीइ वा' शुद्ध अग्नि-अर्थात् तयेसा લાખડના પિડના અગ્નિના અથવા વીજળી વિગેરેના જેવા સ્પર્શ હાય छे, ‘भवेएयारूवे सिया' गौतमस्वामी अलु ले पूछे छे - लगवन् शेवोन સ્પર્શ આ નરકાના હૈાય છે ? અહિયાં સૂત્રમાં બધે ઈતિ શબ્દ ઉપમાભૂત વસ્તુસ્વરૂપની પરિસમાપ્તિ સૂચક છે. તથા વા’ શબ્દ પરસ્પરમાં સમુચ્ચયના વાચક છે. તેથી અહિયાં કાઇ પણ નરકાવાસને સ્પર્શે શરીરના અવયવાના છેક ડાય છે. કેઈ નરકાવાસને સ્પર્શ શરીરના અવયવાના ભેદક હાય છે. કાઇ નકાવાસને સ્પર્શે વ્યથા જનક હાય છે. કાઈ તરકાવાસને
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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