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________________ जीवाभिगमस्त्र कुणियाण्ण दुभिगंधे' मृतकुथितदिलष्ट कुणि व्यापन्नदुरभिगन्धः मृतः सन् कुथित पूतिभावं समाप्तः एतादृशश्वेच्छ वानस्यामात्र गठऽपि भरति, न च स तथा दुर्गन्ध रतत्राह-'चिर' इत्यादि, चिरमिनष्टः-चिरकालसुच्छ्त्ताइस्थांमाप्य स्फुटित इत्यर्थः, सोऽपि तथा दुरभिदान्ध न हलति तत्राह-'कुणिम्' इत्यादि, व्यापन्न विशीणीभूतं शटितं कुणिमं सांसं यस्य स मृत्त थिचिरविनष्ट कुणिमव्यापन्नः। अतएन दुरभिगन्धः दुरभिः-सर्वेषानाभिख्येन दुष्टो गन्धो यस्यासौ दुरभि गन्धः । 'असुइक्लिीण विगय बीशत्थ दरिसणिज्जे' अशुचि विलीन वितवीभत्सा दर्शनीयः, अशुचिरपवित्ररूपः दिलीलो मनसः कृलिसलपरिणामहेतु विगतं विनष्टं यदभिमुखतया प्राणिनां गतं गमनं यस्मिन् स तथा, तथा वीभत्सया निन्दया दर्शनीयो द्रष्टु योग्य इति बीमत्ता दर्शनीयः सतो विशेषण समासा, अशुचिविलीनविगतबीभत्सा दर्शनीयः। 'किमिजालाउलसंसत्ते' कृमिजाळा कुलसंसक्तः परस्परसबद्धतया संहक्तः सन कृमिजाला कुलोजात इति कृमिजाला कुणिम यावण्ण दुभि गंधे' भानो धीरे २, खज-फूलकर सड़ गये हों, और जिनमें से दुर्गन्ध आरही हो और इसी कारण जो । 'असुह विलीण विगयी भन्थदरिसणिज्जे' अशुचि छुने योग्य न रहे हो मन में अत्यन्त ग्लानि के उत्पादक बने रहे हों, जिनके सन्मुख जाना भी कोई नहीं चाहता हो, अथवा जिनके पास से होकर भी कोई निपल ना नहीं चाहना हो, जो पीअत्सा ले-ग्लानि से-देखे जाने के योग्य घन रहे हो 'किभिजालाउलसंलत्ते' एवं जिस में कीडों का समूह यिल दिला रहा हो-इल पर गौतम ! पूछते हैं-'भवे एघारूवे सिया' तो क्या हे भदन्त ! जैली दुर्गन्ध इन अहिमृतक आदि के सडे गले कलेबर की होती है तो क्या ऐसी सी दुर्गन्ध उन मरकों में होती है ? छाय छ, भने मामधा भरवाना शरी। 'मय कुहियचिरविणट्ट कुट्टिमवावण्ण दुन्भिग घे' माने। धीरे धीरे सीन सही गया साय, सीन. टी गया हाय, मन माथी दुम भावती हाय सने ४२९था २ 'असुइ विलीण विगय बीभत्थदरिसणिज्जे अशुशि-अपवित्र २५श ४२१॥ ये२५ न डाय, તેમજ મનમાં અત્યંત લાની ઉત્પન્ન કરાવનારા બન્યા હોય, અને જેની પાસે જવા પણ કાઈ ઈચ્છતા ન હોય અથવા જેની પાસે થઈને કેઈ નીકળવા પણ (२७ता न डाय, मे। खनाथ पपाने योग्य मन्या हाय 'किमिजालाठलसं सत्ते' मने रेमा श्रीमान। समुह य महमही २७यो डाय 'भवे एयारूवे सिया' ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે કે જે પ્રમાણેની દુર્ગધ આ મરેલા સર્પ વિગેરેના
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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