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________________ १८५ प्रतिका टीका प्र.३ उ.२.१३ नरकावास संस्थाननिरूपणम् स्राणि आयामविष्कंभेण, असंख्येयानि योजन सहस्राणि परिक्षेपेण मज्ञप्ता इतिच्छाया । एवमेव वालुकाश्रमा पङ्कममा धूपघमा तमः प्रमा सूत्राण्यपि स्वयमेवोहनीयानि । अधः सविषये सूत्रकारः स्त्रयमाह - ' अहे सत्तमा णं' इत्यादि, 'अहे सताए ! पुच्छा' अवासप्तम्यां खलु भदन्त ! पृच्छा हे भदन्त ! अधः सप्तम्यां पृषिव्यां ये भकास्ते कियत्काः किं प्राणा आयामविष्कम्भेण कियत्का:- वित्परिवित्ताः परिक्षेपेण वा इति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते भगवानाह - गोयवा' इत्यादि, 'दोष' के गौतम ! ' दुविधा पत्ता ' अधः सप्तमीनरका द्विविधाः-हिपकारकाः प्रधाः कथिताः 'वं जहा' तद्यथा - 'संखेज्जबित्थडेय' संख्येवविस्तृतथ 'अमखेज्जवित्थडाय' असंख्येयविस्तृताश्च 'तत्थ गं जे ते संखेज्जवित्थडे' तच द्वयोर्मध्ये यः स संख्येयविस्तृनः 'से णं एक्कं जोयणसयसहस्से आयामविवखंभेणं' स खल्वेकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेण 'तिन्ति जोयणस्यहरुलाई' त्रीणेि योजनशतसहस्राणि 'सोलसहरसाई' षोडशलेना चाहिये । अधः सप्तमी के विषय में सूत्रकार स्वयं कहते हैं 'अहे समाए वं संते पूछा ?' हे भदन्त ! अधः सप्तमी पृथिवी में जो नरक है वे कितनी लम्बाई वाले, कितनी-चौडाई वाले और कितनी परिधिवाले हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्रीने कहा है 'गोमा ! दुविहा पन्नता' हे गीत ! अधः ससमी पृथिवी में जो नरक है वे दो प्रकार के है- 'तं जहा' जैसे- 'लेखेज्ज वित्थडे य, असंखेज्जवित्थडा य' संख्यात विस्तार वाला एक और असंख्यात विस्तार वाले चार 'तत्थ णं जे ते संखेज वित्थडे' हन में जो नरक संख्यात विस्तार वाला है वह एक अप्रतिष्ठान नरक ही है 'से णं एक्कं जोयण सघसहस्सं आयोमविक्खंभेणं' वह एक लाख योजन की लम्बाई चौडाई वाला है-तथा સમજી લેવા. અધઃ સપ્તમીના સમૃધમાં સૂત્રકાર સ્વયં કહે છે. 2 'अहे उत्तमाए णं भंदे ! पुच्छा' हे भगवन् अध ससभी पृथ्वीमां ने नरो छे, તે કેટલી લખાઈ વાળા, અને કેટલી પહેાળાઇ વાળા અને કેટલી પરિધિવાળા છે? या अश्नना उत्तरभां अलु डे हे 'गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम! अधःसप्तभी पृथ्वीमां ने नरहे, ते मे प्रअरना है. 'त' जहा' ते मा प्रभाले छे.-'स खेज्जवित्थडेय अस खेज्ज वित्थड़ाय' संध्यात विस्तारवाणु मे सने सभ्यात विस्तार वाजा यार 'तत्थ णं जे ते सखेज्ज वित्थडे' तेमां ने न२९ सौंध्यात विस्तारषाणु छे. ते खेड याप्रतिष्ठान न२४०४ हे 'सेण' एक' जयसहस्सं आयाम विक्स' भेणं'ते थे साथ यन्ननी समाई यहाजार्ड जी० २४
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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