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________________ श्रीजीवाभिगमसूत्रे श्रोत्रेन्द्रियं चक्षुरिन्द्रियं रसनेन्द्रियं घ्राणेन्द्रियं स्पर्शनेन्द्रियं च पुनरपि इन्द्रियमेकैकं द्विप्रकारकं द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च द्रव्येन्द्रियमपि द्विप्रकारकं निर्वृत्तिरूपमुपकरणरूपं च तत्र निर्वृत्तिर्नाम प्रतिविशिष्टः संस्थानविशेषः । निर्वृत्तिरपि द्विधा वाह्याभ्यन्तरा च तत्र बाह्या कर्णपर्यटिकादिरूपा सा च विचित्रा न प्रतिनियतरूपतया निर्देष्टुं शक्या तथाहि - मनुष्यस्य श्रोत्रे नेत्रयोरुभयपार्श्वभाविनी, भ्रुवौ चोपरितनश्रवण बन्धापेक्षया समे । वानिनां श्रोत्रे नेत्रयो रुपरि तीक्ष्णाग्रभागयुक्ते भवतः इत्यादि, आभ्यन्तरा निर्वृत्तिस्तु सर्वेपामेकरूपैव, आभ्यन्तरां निर्वृत्तिमधिकृत्यैव एतानि सूत्राणि भवन्ति 'सोइदिए णं भंते! किं संठाणसंठिए पन्नत्ते ? गोयमा । कलंबुया संठाणसंठिए पन्नत्ते, चक्खिदि ७४ प्रकार की है - श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय । इनमें भी एक २ इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के भेद से दो दो प्रकार की है । द्रव्येन्द्रिय भी निर्वृत्ति और उपकरण के भेद से दो प्रकार की हैं । प्रतिविशिष्ट संस्थान विशेष का नाम निर्वृत्ति है । निर्वृत्ति भी वाह्य निर्वृत्ति और आभ्यन्तर निर्वृत्ति के भेद से दो प्रकार की होती है । कान की झिल्ली आदि रूप बाह्य निर्वृत्ति होती है । यह बाह्य निर्वृत्ति नाना प्रकार की होती है । मतः प्रतिनियत रूप से यह कही नहीं जासकती है । जैसे - मनुष्य के श्रोत्र और उसके नेत्र की दोनों तरफ की भौहें ये दोनो कान के उपरितन बन्धकी अपेक्षा समान होती है । और घोड़ों के कान उनके दोनों नेत्रो के उपर तीक्ष्ण अग्रभागवाले होते हैं । इत्यादि आभ्यन्तर निर्वृत्ति सब जीवों की समान - एक रूप ही होती है । ये सूत्र आभ्यन्तर निर्वृत्ति को लेकर ही कहे गये हैं—“सोइंदिए णं भंते ! किं संठाणसंठिए पण्णत्ते" हे भदन्त ! श्रोत्रेन्द्रिय का आकार कैसा कहा गया है ? “गोयमा ! कलंच्या संठाणसंठिए पन्नत्ते" हे गौतम ! कदम्बपुष्प के 1 प्रभाऐ यांथ अक्षर छे- ( १ ) श्रोत्रेन्द्रिय (२) यक्षुरिन्द्रिय, (3) प्राषेन्द्रिय, (४) रसनेन्द्रिय, (૫)સ્પર્શેન્દ્રિય, તે પ્રત્યેક ઇન્દ્રિયના દ્રવ્યેન્દ્રિય અને ભાવેન્દ્રિય નામના ખએ ભેદ પડે છે દ્રષ્યેન્દ્રિયના નીચે પ્રમાણે એ ભેદ કહ્યા છે-(૧) નિવૃ*ત્તિ અને (૨) ઉપકરણ પ્રતિવિશિષ્ટ સ’સ્થાવિશેષનું નામ નિવૃત્તિ છે. નિવૃત્તિના પક્ષુ નીચે પ્રમાણે એ ભેદ છે—(૧) ખાતુ निर्वृत्ति, (२) माल्यन्तर निवृत्तिना, अननी जिहिसी ( ) આદિ રૂપ ખાદ્ઘનિવૃત્તિ હોય છે. તે મા નિવૃત્તિ વિવિધ પ્રકારની હાય છે, તેથી તેને કાઇ ચાક્કસ રૂપે વધ્યું વી શકાય તેમ નથી. જેમ કે માણસના કાન અને તેની આંખેાની બન્ને તરફની ભમરા, આ બન્ને કાનના ઉપરિના અન્યની અપેક્ષાએ સમાન હાય છે, અને ઘેાડાના કાન તેની બન્ને આંખા ઉપર તીક્ષ્ણ અગ્રભાગવાળા હાય છે. સઘળા જીવાની આભ્યતર નિવૃત્તિ એક સરખી જાય છે. આસૂત્રા આભ્યતર નિવૃત્તિનું જ પ્રતિપાદન કરે છે. शीतभस्वाभीनो प्रश्न- "सोइंदिप णं भंते । किं संठाणसंठिए पण्णते ?" हे भगवन् !
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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