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________________ ..... जीवामिगमत्र ४७४ पुरुषाणां भवस्थितिमानं कथितम् , मधुना पुरुषः 'पुरुषत्वममुञ्चन्' कियन्त कालं निरन्तर मवतिष्ठते । इति निरूपणार्थमाह-'पुरिसे 'ण इत्याटि पुरिसे ण' भंते पुरुषः खलु भदन्त ! 'पुरिसेत्ति कालओ केवच्चिरं होइ' पुरप इति-पुग्परूपेण पुरषभावस्यापरित्यागेनेत्यर्थः कलित. कियच्चिरं कियन्तं कालं यावद्वतीति 'प्रश्नः भगवानांह-गोयमा' इत्यादि, गोंयमी है गौतम ! 'जहन्नेणं अंतो मुहत्तं जघन्येनान्तर्मुहर्तम , तावत्कालादूर्व 'मृत्वा स्यादि भावंगमना 'दिति । 'उक्कोसेण सागरोवमहत्तं सातिरेग । उत्कण ' सागरोपमपृथक्त्वं सातिरेकम् द्विसागरोपमादारभ्य नवसागरोपमपर्यन्तं' सामान्यत - स्तिर्यग् नरामरभवेषु एतावन्त' कालं पुरुष्वेव भावात् सातिरेकता च 'कतिपयमनुष्यभवैरव । ज्ञातव्या तत परं पुरुपनामकर्मोदयाप्रकार की स्थिति तेतीस मागरोपम की हैं। इस क्रम से देव 'पुरुषों की स्थिति संवन्धी वक्त व्यता असुरकुमार से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवपुरुषों तक कहलेनी चाहिये। . ..." पुरुषों की भवस्थिति का प्रमाण कहकर अब सूत्रकारं यह प्रकट करते हैं कि पुरुष पुरुषत्व को कितने काल तक नहीं छोड़कर निरन्तर पुरुप होता है "पुरिसे णं भंते" इत्यादि। "पुरिसे णं भंते ! पुरिसेत्ति कालो केवच्चिरं होई"हे भदन्त ! पुरुष अपने पुरुष भाव को कितने काल तक त्याग नहीं करता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-"गोयमा ! 'जहन्नेणं अंतो मुहुत्तं उक्को सेणं सागरोवमपुहुत्तं सातिरेग" हे गौतम ! पुरुष अपने पुरुषभाव का त्याग नहीं करे तो वह जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त तक नहीं करे और उत्कृष्ट से वह कुछ अधिक दो सागरोपम. से लेकर ९ नौ "सागरोपम तक नहीं करे. क्योंकि इतने काल तक वह निरन्तर तिर्यग् नरं अमर इन भवों में पुरुषरूप से ही उत्पन्न होता रहता है, यहां सातिरेकता कुछ अधिकता कही गई है वह कितनेक" मनुष्यभवोंकी अपेक्षा બન્ને પ્રકારથી તેત્રીસ સાગરોપમની છે આ ક્રમ પ્રમાણે દેવ પુરુષોની સ્થિતિ સંબંધી વકતવ્યતા અસુર કુમારથી લઈને સવધ સિદ્ધ દેવ પુરુષ સુધી કહેવી જોઈએ. पुरुषोनी सिद्धिन अभा हीन, ३. सूत्र५२ मे ताछेरता पुरुष, ५ - पणाने सदा ॥ ५ त छोउया. विना नि तर पुरुष मानी २९ छ, "पुरिसे ण भंते ! पुरिसेत्ति कालओ केवच्चिरं होई. मगवन् पु२५ पाताना पुरूषपायरन सुधी त्या४२ता, नथी १ मा प्रश्नना त्तम प्रभु गीतम स्वामी थे गोमा, ! जहपणेण अंतो मुहुत्त , उक्कोसेणं सागरोवमपुहुत्त) सातिरेग" गौतम पुरुष पोताना પુરુષપણાને ત્યાગ ન કરે તે તે જ ઘસ્યથી એક અતિમુહૂર્ત સુધી અને ઉત્કરથી તે કંઈક વધારે બે સાગરોપમથી લઈને નવ સાગરોપમ સુધી ત્યાગ કરતા નથી, કેમ કે આટલા કાળ - સુધી તે નિર તર તિર્યફ નર અમર આ ભવમાં પુરુષપણાથી જ ઉત્પન્ન થતા રહે છે અહિયાં સાતિરેકપણું કંઈક અધિક કહેલ છે તે કેટલાક મનુષ્ય ની અપેક્ષાથી સમજી લેવું . स
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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