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________________ ११] पुद्गल-परावर्तन का स्वरूप खूब स्पष्ट समझाया गया है, इस से भव्य जीवो को मनुष्य भव की दुलभता का भान अच्छा होता है । इस विषय के सुनलेने के बाद स्वयं धनाजी को इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए - संसार में प्राणिमात्र जन्म, जग, मृत्यु के कारण दुग्वी हैं। गर्भावस्था, वाल्यावस्था, यौवनावस्था व वृद्धावस्था आदि में दुःखों की परम्परा के कारण आत्मा को शान्ति नहीं मिलती, फिरभी अज्ञानात्मा वात, पित्त, कफ, वीर्य तथा रक्त के प्रागन समान कामभोगों की तरफ आकृष्ट हो जाय तो उस जैसा दयनीय संसार में और कौन होगा ? क्यों कि संसार में दुःखों से छुडाकर आश्रय देनेवाला कोई नहीं है, यदि आश्रय-दाता है तो एक वीतराग धर्म ही है । अतः आत्म-कल्याण के लिये मुझे धर्म के नायक भगवान की शरण ही ग्रहण करनी चाहिये । इस प्रकार विचार कर के महावीर प्रभु से अजे की कि-हे भगवन् ! अपनी माता से आज्ञा प्राप्त कर इस असार संसार को त्यागकर आप के समीप दीक्षित चलूंगा। धन्नाजी की इस भावना को सुनकर प्रभुने यही कहा कि जैसा सुग्न हो वैसा करो परन्तु धर्म कार्य में ढील न करो । यह आदेश प्रभु के वचन में निर्ममता प्रगट करता है। यहा यह भी हमें शिक्षा मिलती है कि धनाजी हनने चय आदिसे बडे होते हुए भी कितने विनीत है जो धर्म के काम में भी माता को पूछते हैं, क्यों कि संसार में प्रत्येक काम माता-पिता की आज्ञा से ही करना परम नीति है। माता और पुत्र का प्रेम. दोनों के परस्पर हुई बातों से हम ठीक तरह जान सकते हैं ऐसे प्रेम बन्धन से बन्धे हा भी वे उसी समय आज्ञा प्राप्तकर महावीर के समीप कल्याणकारी संयम को धारण करते है । दीर्घ काल के मोह बन्धन को व अखुट धन को तथा बत्तीस स्त्रियों को त्याग कर उन्होंने हमें मंसार के बन्धन से मुक्त होने का बोध दिया है। संसार को छोडकर संयमी बनने के पश्चात् मुनियों को कैसे २ परीषद उपसर्ग सहने पडते है नद्विपयवा ज्ञान धन्ना अणगार के जीवन से हमें मिलता है।
SR No.009333
Book TitleAnuttaropapatik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages228
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuttaropapatikdasha
File Size13 MB
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