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श्री अनुत्तरोपपातिकसूत्रे परिम्लाना भवति तथा तस्य नासिका शुप्का रूक्षा निमांसा च संजाता ॥सू०३३॥
सूलम्-धण्णस्स अच्छीणं, से जहा० वीणाछिड्डेति वा, बद्धीसगछिड्डति वा, पाभाइयतारगाइ वा, एवामेव० ॥ सू० ३४॥
छाया-धन्यस्याक्ष्णो:०, तद्यथा०-वीणाछिद्रमिति वा, वद्वीमकच्छिद्रमिति वा, प्राभातिकतारकेति वा, एवमेव० ॥ सू० ३४ ॥
टीका-'धण्णस्स' इत्यादि । यथा वीणाछिद्रं, वदीसकछिद्रं-बद्धीसको वाद्यविशेपस्तस्य छिद्र, प्राभातिकतारका वा, तत्सदृशे तस्याक्षिणी निम्ने गभीरे शुष्के रूक्षे निर्मासे च संजाते ॥ सू० ३४ ॥
सूलम्-धण्णस्त कण्णाणं अयसे०,से जहा० मूलछल्लियाइ वा, वालंकछल्लियाइ वा, कारेलकछल्लिकेति वा, एवमेव० ॥सू० ३५॥
छाया-धन्यस्य कर्णयोरिद०, तद्यथा-मूलछल्लिकेति वा, वालुङ्गछलिकेति वा, कारल्लकछल्लिकेति वा, एवमेव० ॥ मू० ३५॥
टीका-तस्य कर्णयोरेवं रूपलावण्यं संजातं, यथा-मूलकछल्ली, वालुङ्कम्लान हो जाती हैं उसी प्रकार उग्र तप के कारण धन्यकुमार की नासिका शुष्क, रूक्ष एवं निर्मास हो गई थी ॥ सू० ३३ ॥
'धण्णस्स' इत्यादि । जिस प्रकार वीणा के छिद्र, बद्धीसक एक प्रकार के बाजे के छिद्र, अथवा प्रातःकालीन तारे होते हैं उसी प्रकार उन तप के कारण धन्यकुमार की आंखे ऊंडी (गहरी), तथा शुष्क, रूक्ष हो गई थी। उनकी आंखे इतनी अन्दर घुल गई थीं, कि उन
वे हुए गहरे छोटे २ छिद्रो में चमक (कीकी) मात्र ही दिख पडती थीं । स्सू० ३४॥
_ 'धण्णस्स' इत्यादि । जैसे-मूले की छाल, ककडी की छाल अथवा માઈ જાય છે, તેમ ઉતપના કારણે ધન્યકુમાર અણગારની નાસિકા શુષ્ક, રૂક્ષ અને निस 25 गई उता. (सू० 33)
'धण्णस्स' त्याहि रम वीणना छिद्र, दीस४-४ प्राना मानना છિદ્ર, અથવા પ્રાતઃકાળના તારા દેખાય છે. તેવી રીતે ઉગ્રતાપના કારણે ધન્યકુમારની આખો ઉડી તથા શુષ્ક, રૂક્ષ થઈ ગઈ હતી. તેમજ તેમની આ એટલી અંદર ઘુસી ગઈ હતી કે તે દળેલા ઉડા નાના નાના છિદ્રમાં ચમક (કીકી) માત્રજ माती ती. (सू० ३४)
'धण्णस्स' त्याहि. भ भूमानी छास, डीनी छ अथवा रेशानी