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________________ ५८ जाताधर्म कथाङ्गसूत्रे सोमागारे' शशिसौम्याकार:-शशी-चन्द्रस्तहत् सौम्य: रमणीयः, आकार:= स्वरूपं यस्य स तथोक्तः । 'कते’ कान्तः कमनीयः । 'पियदसणे' प्रियदर्शन:पियं-दर्शकजनमनोहलादकं दर्शनम् अवलोकनं यस्य स तथोक्तः । 'सुस्वे' मुरूपः सर्वातिशायिरूपलावण्यवान् । 'सामदंडभेय उवप्पयाणणीमुप्पउत्तणयविहिष्णू' सामदण्डभेदोपप्रदाननीति सुप्रयुक्तनयविधिज्ञः-तत्र साम='वयं युष्माकं यूयमस्माकं को भेदोऽस्माकम्' इत्यादि मधुरवाक्यैः शत्रुपक्षवशीकरणम्, दण्डः दण्डयते-धनाद्यपहरणेन निस्सारी क्रियते जनो येन स तथोक्तः क्लेशोत्पादेन परिपूर्ण था। चंद्रमाके जैसा इसका सौम्य आकार था । देखने वालों को यह बहुत अधिक प्रिय लगता था। कमनीय था। रूप लावण्य इसके प्रत्येक अंग से टपकसा रहा था। ___यहाँ "अहीणजावसुरूवे" में जो यावत् पद रखा है-उस से इस पाठ का यहा ग्रहण किया गया है-अहीण पडिपूष्ण-पंचेन्द्रियसरीरे लक्खणवंजणगुणोववेए, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्ण -सुजायसव्वगसुदरंगे, ससिसोमागारे, कंते, पियदसणे सुरूवे । (सामदंडभेदउवप्पयाणणीतिसुप्पउनणयविहिन्त ईहा-वृहदग्गण-गवेसणअत्थसत्थमइविसामए) हम आपके हैं आप हमारे हैं हम में और आप में कोई भेद नहीं है इत्यादिमधुर वचनों द्वाराशत्रुपक्ष को वश में करना यह साम उपाय है, क्लेश उत्पन्न करके अथदा कोप आदि का अपहरण करके शत्रु को वश में करना-या उसे विलकुलकमजोर बना देना यह दण्डनीति है, शत्रु पक्ष के स्वामी-तथा सेवक में जो परस्पर में स्नेह होता है उसमें भेद करना-उनके चित्त में ऐसी बात जमा देना कि जिससे दोनों आपसमें एक दूसरे का विश्वास न कर सकें इसका नाम भेदनीति है। यह भेदनीति ३ तीन प्रकार की कही गई हैચન્દ્રના જે એમને સૌમ્ય આકાર હતા જેનારને એ બહુજ વધારે ગમતે હતો એ કમનીય હતા. રૂપ અને લાવણ્ય એમના દરેકે દરેક અગમાંથી નીતરતુ હતુ. मही' 'अहीण जाव सरुवे भारे यावत् ५४ भुमी माव्यु छ, तेनाथी या पानु मही अडः ४२वामा आयो -अहीणपडिपुष्णपंचेंदियसरीरे लक्खणवंजनगुणोववेए माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगे ससिसोमागारे, कंते, पियदसणे सुरूव । सामदंडभेद उपप्पयाण शीतिमुप्पउत्तणयविहिन्नू ईहा वृहमग्गणगवेसणअत्थमत्यभइविसामए) અમે તમારા છીએ, તમે અમારા છે, આપણામાં કેઈ પણ જાતને ભેદ નથી, વગેરે મીઠા વચનોથી શત્રુપક્ષને વશ કરો આ કામ ઉપાય છે પીડિત કરીને અથવા તો ધન-ભંડારનું હરણ કરીને દુશમન ઉપર કાબૂ મેળવે અગરતો તેને સાવ નિર્બળ બનાવ આ દડનીતિ છે. શત્રપક્ષના સ્વામી તેમજ સેવકમાં જે એક બીજા તરફ है. वह प्रमाण कहीगई है।
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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