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ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्त्रे माणेभ्यः ववरोवई' व्यपरोपयात-पृथक्करराति म रयतात्यथः, जोविता द्वथपरोप्य आभरणालङ्कारान् गृहाति, गृहीत्वा देवदत्तम्य दारयकस्य शरीर 'निप्पाणं' निष्प्राणम् =श्वामाचासादि पाणरहितं निच्चेट' निश्चेष्टंजी पनव्यापार रहित जीवविप्पज 'जीवविप्रत्यक्तम् आत्मप्रदेशरहितं देवेदत्तदारकशरीरं भग्नापे प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य यत्रव मालुकाकक्षकस्तोवोपागच्छति, उपागत्य माल्लुका कक्षकमनुप्रविशति, अनुप्रविश्य 'निच्चले' निश्चलः गमनागमनादिवर्जितः 'निप्फंदे' निप्पन्दः हस्तपादाद्यवयवचलनरहितः 'तुसिणीए' तणीका वचनव्यापारर. हितः सन् दिवसंतदिनं 'खवेमाणे' क्षपयन् गमयन् तिष्ठति ॥सू० ७॥ भग्गवण, तेणव उवागच्छड) निकल कर वहां गया कि जहां वह जीणे उद्यान और भग्न प था। (उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारयं जीवियाओ ववरोवेड) वहां पहुंच कर उसने उस देवदान दारक को मार डाला। (ववरोवित्ता आभरणालंकारे गिण्डइ, गिण्हित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरंग निप्पाणं निच्चेट जीवियविप्पजह भग्गबए पक्खिवड) मार कर उसके ममम्तआभूपण उतार लिये--और देवदत दारक के उस निष्पाण, निश्चष्ट तथा आत्मपदेगों से विहीन बने हुए शरीर को भग्नरूप में डाल दिया। (पक्वि वित्ता जेणव मालुया कच्छए तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता माल्या कच्छए अणुपविसड, अणुपविमित्ता निच्चले निप्पंदे तुसिणीए दिवस खवेमाणे चिट्ठइ) डालकर फिर वह जहां मालुका कक्ष था वहाँ आया। आकर वह उसमें प्रविष्ट हुआ--और उसी मे चुपचाप घुसे उसने निश्चल और निश्चेष्ट होकर वह अपना दिन व्यतीत--किया। ॥मूत्र ७|| देवदिन्नं दारय जीवियाओ ववरोवेइ) त्या पडांचीने तो माण वित्तने भारी नायो (ववरोवेत्ता आभरणाल कारे गिण्डड गिणिहत्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाण निच्चे? जीवियविप्पजढ भगवए पक्खिवह) भारीन તેના બધા ઘરેણાઓ તેણે ઉતારી લીધા અને તેના નિપ્રાણ, નિટ તેમજ આત્મ प्रश। पारना शरीरने मन वाम श्री धु (पक्खिोवत्ता जेणेव मालुया मच्छए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता मालुयाकच्छयं अनुपविसइ अणुपविसित्ता निचले निप्फडे तृसिगीर दिवसं खवेमाणे चिट्ठइ) ફેકીને તે ત્યાં માલુકા કક્ષ હતું ત્યાં ગયે જઈને તેમાં પ્રવેશીને તેણે ચૂપ ચાપ નિશ્ચળ અને નિષ્ટ થઈને પિતને દિવસ પસાર કર્યો છે સૂત્ર ૭ .