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ज्ञाताधर्म कथा मन्त्र भए' प्रतिमय: मयोत्पादकः। 'निसंमिए' नृशंसकः। 'निरणुकंपे' निरनु फम्प:व्यागुणवर्जितः। 'अहिन्धएगंतदिहिए' अहिरिवैकान्तदृष्टिकः, भुजङ्ग इब करकर्मकरणे एकाग्रतालक्षणः एकान्ता-एक निश्चया दृष्टिः विचारसरणिचम्य म तथा। खुरेव एगंतधारए'क्षुर इव एकान्तधारकः, क्षुरोनापिता
विशेषः 'उम्तग' इति भाषायाम्, तद्वत् 'एगंत' एकान्तेन तीव्रत्वात्सर्व प्रकारेण परवापरणे 'धारा' धारा-परोपतापनरूपा परिणामधारा यस्य सः. पत्रम्यापहारीत्यर्थः, 'गिद्धेव आमिमतल्लिच्छे' गृद्ध इव-आमिप तल्लिप्सः गृद्ध व-गृहपक्षिवन 'आमिन, आमिषे गव्दादिविषये 'तदिच्छे' तल्लिच्छ: नत्परः तल्लिच्छे' इति तत्परार्थो देगी शब्दः । अथवा आमिषे विपयभोगादिके मा अत्युकटा लिपना यस्य सः-कामभागे तोत्राभिलापोत्यर्थः। 'आंग्गमिव सबभकवी' अग्निनि च सर्वभक्षी भक्ष्याभक्ष्यल भोजी गर्वजनलुण्टको इसे देखते ही जोवा के हृदयमें भय का संचार हो जाता था। (निसमाए निरनुरुप अहिवएगनदिहोए, खुरेव एगंतधारए, गिद्धव श्रामिमतल्लिन्छे) यह स्वभावतः नृशंसक (घातक) या निरनुकंपे-दयागुण वर्जित था। सर्प की तरह कर कर्म करने में इस की विचारमरणि एक निश्चय वाली होती थी. क्षुरा-उग्नग के समान वह सर्व प्रकार से परकीय वस्तुओं के हरण करने में पगपनापनरूप परिणाम धागवाला था। गिद्धपक्षी की तरह यह कदादि विषयरूप आमिप में अधया कामवासना में तत्पर रहा करता था। (अग्गिमित्र मधमरवी जलमियामागाही उचग, वंचग, माया नियडि, कड, काड. मार, मंगओग, बहले. चिरणारविन्द्र मोलायारचरिने, जूमपनगी, मजपनंगी भोज, पसगी, मंसपनगी दामणे दियय हारप) अग्नक ममान यह सर्व भभी था, अथवा लक्षगे से सब जीवों को भान 411 45 1 ghi. (
निपहए निग्नुकंपे अहिन्ध एसिदिटिए ग्वत्र पनपाए, गिदेव आमिमलिटन्छे) स्वभावधीत नृशंस भने प.त . निग्नुकपे) निय 1. सापनी म १२ भभी प्रवृत्त यना તેના વિચારો દઢ નિશ્ચયવાળ હતા. અગની જેમ તે બધી રીતે બીજાઓની વસ્તુને કરી લેવામાં પાપાપન રૂપ પામ વાળા હ ગીધની જેમ શબ્દ વગેરે વિજય રૂપ આમિષમાં અથવા કામવાસના જેવી બાબતમાં તે હમેશા તયાર
ने (अग्निनिर कामकली जलमित्र मन्वग्गाही उपकरण, वंग, माया निगड. ट. स्पट, मागपभोग. बहुले, चिरणारविण मौलापारन्नेि जमानी, मनपगंगी भोजपमंगी मंसपमंगी दारुण तिपय કtી બિના જે તે સભી ને અથવા તે બધા પ્રાીઓને લૂંટનાર