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________________ ४८२ ज्ञाताधर्मकथाजसत्रे कार:-बलप्रयोगः तया निवृत्तं पैनायिकं-दावानलभयाकुलत्वात्स्वकीयसमस्तवलमाश्रित्य कृतं वज्रनिर्घोपवत् महास्थूलम् अत एव विरसम्-अप्रियं यद् रटितंभापितं तपो यः शब्दः, तेन भयंकरमहाशब्देन 'फोडयंतेव-- अंबरतलं' स्फोटयन्निव अम्बरतलं-गगनतलं विदारयन्निव, ‘पायदद्दरेण वयं तेव मेडणितलं' पाददर्दरेण कम्पयन्निव मेदिनीतलं, तत्र पादददरेण-पादप्रहारेण मेदिनीतलं भूमण्डलं कम्पन्निव 'विणिम्मुयमाणेय सीयरं' विनिर्मुश्चन् शीकरं शुण्डादण्डेन जलग्णं निःसारयन् , 'सबओ समंता' सर्वतः समन्तात् सर्वतो मावेन 'बल्लित्रियाणार छिंदमाणे' बल्लीवितानानि लताविस्तारान् छिन्दन 'रुक्खमहम्साई वृक्षसहस्राणि, तत्र 'सुबहूणि' सुबहनि णोल्लयते' नोदयन कम्पयन् , 'विणढरटेन्न नरवरि' विनष्टराष्ट्र इव नरवरेन्द्र: 'विण र विनष्टराष्ट्रः विनष्टं 'पटुं' राष्ट्र देशो यस्य सः शोचन् 'नरवरेन्द्रः' श्रेष्ठभूप इव पुनः 'वाया इद्धे पोए वाताविद्धव पोतः प्रचण्डपवनप्रेरितःनौरिव ‘मंडलवाएव्व' मण्डलवान इब गोलाकारवायुरिव परिव्मम ते' परिभ्रमन् 'अभिक्रवण' अभिक्ष्णर=पुनःपुन: 'लिंडणियरं पमुचमाणे२' लिंडनिकरं प्रमुश्चन्२ लिण्डानि कुर्वके समान महा भयंकर अप्रिय-चिंधाररूप शब्द से (फोडयंतेव अंबर तलं) मानो-आकागतल को फोडते हुए से ( पायददरेणं मेइणितलं कंपयंतेव) पाद प्रहार से भूमंडलको कंपाते हुए से (सीय विणिम्मुयमाणे य) शुडादंड से जलकणों का छोडते हुए (सव्यओ समंता वल्लि वियाणाई छिदमाणे) सब ओर से वल्लोविताना को अवाडते हुए (मक्खसहस्साई तत्थ म बनि गोल्लयंते) हजारों वृक्षों को कंपाते हए (विणट्टरटेबनर वरिंदे) जिसका देशा नष्ट हो गया है, ऐसे श्रेष्ठ राजा की तरह (वाया हढेष पोप) वायुसे आहत नाव की तरह (मंडलवाएकव) गोलाकार रूप मडल वायुको तरह-वणूरे की तरह-(परिभमते) इतस्ततः परिभ्रमण सोने ? ४ी Anil पनिनी म मा प्रय, २ थासाथी (फोडयंतेव अंबरनलं ) ' माशतसने धीरता (पायहरेणं मेटणितलं कंपयंतेत्र ५ मारोधी पृथ्वीने यता डाय तेम (सीयरं विणिम्मुयमाणेय) सूदया माना टागो ता (सओ संमता वाल्लिवियाणाई छिंदमाणे) यारे ना सतावितानाने BI, (सक्ख महम्साई तत्य मुबहणि णोल्लयंते) तरी वृक्षाने धुतता (विणारच नरवरिटे) नो देश नाश पाभ्य। छ, सेवा उत्तम नी म (वाया इद्रव्यपोग) परनथी माघात पाभेदी खाना म (मदुवापद) २२५ोणियानी म (परिभमंते) माम
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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