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________________ अनगारधर्मामृतवपिणीटीकास् ३.सुधम स्वामिनाचम्पानगर्यासमवसरणम् २५ नातिसमीपे उचितदेशे ‘उड्दैजाणू' उर्वजानुः-उर्वजानुनी यस्य स तथोक्त:उत्कुटुकासनोपविष्ट इत्यर्थः, 'महोसिरे' मधःशिरा-नोवं न तिर्यक्षिप्तदृष्टःकिन्तु नियतभूभागनियमितनयन इति भावः।झाणकोहोवगए'ध्यानकोष्ठोपगतः-ध्यायतेचिन्त्यते वस्त्वनेनेति ध्यानम् एकस्मिन् वस्तूनि तदेकाग्रतया चित्तस्यावस्थापनम्, ध्यानं कोष्ठ इव ध्यानकोष्ठस्तमुपगतः। यथा कोष्ठगतं धान्यं विकीर्ण न भवति तथैव ध्यानगता इन्द्रियान्तःकरणवृत्तयो-बहिर्न यान्तीति भावः, नियन्त्रितचिचवृतिमानित्यर्थः। संयमेन तपसाऽऽत्मनं भावयन् वासयन् विहरति। ततः तदपद्मगौरः उग्रतपाः तप्ततपादीसतपाः उदारः घोरः घोरव्रतः संक्षिप्त विपुलतेजोलेश्यः" इतने पाठ का ग्रहण हुआ है इन समस्त शब्दों का अर्थ मेरी लिखिहुइ औपपातिक सूत्र की पियूषवर्षिणी टीका में लिखा जा चुका है (अजसुहमस्स धेरम्स अदरसामंते उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोटोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे माणे विहरइ) श्री आर्यसुधर्मास्वामी स्थविर के पास न अधिक दूर और न अधिक समीप उर्ध्वजानु होकर बैठे हुए थे। उस समय उनका मस्तक नीचे की और झुका हुआ था। सूत्रकार इस पद द्वारा यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि इस स्थिति में उनकी दृष्टि न ऊपर थी और न तिरछी किन्तु नियत भू भाग में नियमित थी। वेध्यान रूपी कोष्ठ में ठहरे हुए थे-इस पद के रखने का यह अभिप्राय है-कि जिस प्रकार कोठे में रखा हुआ अनाज इधर उधर नही फैल (विखर) सकता है उसी प्रकार ध्यानगत इन्द्रियों और अन्तःकरण की दृत्ति चाहिर की ओर नहीं फैलती है आत्मस्थ रहती हैं । तात्पर्य यह कि वे उस समय नियन्त्रित चित्तवृत्ति वाले थे। तप और संयम द्वारा आत्मनिरीक्षण करने की ये सदा भावना नाम मोपपातिसूत्रनी swi maiwi माया छ) (अजमुहमस्स थेरस्स अदूरसामंते उजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे माणे विहरइ)श्रीमायः सुधास्वामी स्थविश्नी पासे न वधारे २ अनेन वधारे નજીક ઊર્ધાનુ થઈને બેઠા હતા. તે વખતે તેમનું માથું નીચેની તરફ નમેલું હતું. સૂત્રકાર આ પદ વડે એ બતાવી રહ્યા છે કે આ સ્થિતિમાં એમની નજર ન ઉપર હતી અને ન નીચી હતી પણ જે ભૂ ભાગમાં નિયતરૂપે હોવી જોઈએ ત્યાં જ નિયમિત હતી. તેઓ ધ્યાનરૂપી કેન્ડમાં અવસ્થિત હતા, આ પદથી એ સ્પષ્ટ થાય છે કે જે પ્રમાણે કેડામાં મૂકેલું અનાજ આમતેમ વિખેરાઈ જતું નથી, તે જ રીતે ધ્યાનગત ઈન્દ્રિય અને અન્ત.કરણની વૃત્તિ બહારની તરફ ફેલાતી નથી. આત્મસ્થ રહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે તેઓ તે સમયે નિયંત્રિત ચિત્ત વૃત્તિવાળા હતા. તપ અને સંયમવડે આત્મનિરીક્ષણ કરવાની ભાવનાથી તેઓ હમેશને
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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