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भगवतीयो काळवदेवेति। 'समस्थ सम्मत्त नाणाणि नस्थि' सर्वत्रापि सम्यक्त्वं ज्ञानं च न भवतीति, 'विरई विरया विरई अणुचरविमाणोववत्ती एयाणि नत्यि' विरतिः विरताविरतिस्तथा अनुत्तरविमानादुपपातश्चेत्येतानि न सन्ति अभवसिद्धिक प्रकरणे अभवसिद्धिक स्वभावत्वात् । 'सबप्पाणा जाव णो इणटे समझे' हे भदन्त ! सर्वे प्राणा यावत् सर्वे-सत्वा अभवसिद्धिकसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतया समुत्पन्नपूर्वाः किमिति प्रश्नः, हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, इत्युत्तरम्, चेह वक्तव्यमिति 'सेव भंते ! सेव भंते ! त्ति' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। 'एवं एयाणि सत्त अभवसिधिय महाजुम्म सया भवंति एवम्-उपरोक्तदर्शित क्रमेण सप्त सप्त संख्यकानि स्थितिकाल संस्थानकाल के ही जघन्यकाल के घरावर है । अर्थात् जघन्य. काल १ एकसमय मात्र है । 'सव्वत्य सम्मत्तनाणाणि नस्थि' यहां समस्त स्थानों में सम्यक्त्व एवं ज्ञान नहीं है। 'विरई अणु तरविमाणोववत्ती एयाणि नत्धि' विरति विरताविरति और अनुत्तर विमान से
आकरके उपपात ये सब नहीं हैं। क्योंकि यह अभयसिद्धिक का प्रकरण है । इस में ये सब अभवसिद्धि स्वभाव होने से नहीं होते हैं। 'सत्यप्पाणा जाव णो इणढे समढे' हे भदन्त ! समस्त प्राण यावत् समस्त सत्त्व क्या अभवसिद्धिक संज्ञि पंचेन्द्रिय रूप से पहिले उत्पन्न हो चुके हैं ? तो इस प्रश्न के उत्तर में यहां ऐसा करना चाहिये कि यह अर्थ समर्थ नहीं है । 'सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सब सत्य ही है २ । इस प्रकार कहकर गौतम ने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया वन्दना नमस्कार कर
समे समय मात्र छे. 'सव्वत्थ सम्मत्तनाणाणि नत्थि' मडिया सा स्थानमा सभ्यत्व भने ज्ञान ४९स नथी. 'विरई विरया विरई अणुत्तरविमाणोववत्ती एयाणि नस्थि' वि२ति विस्तावित मनुत्तर विमानथी मापीर ઉપપત આ બધા કહેલ નથી. કેમ કે–આ અભવસિદ્ધિકનું પ્રકરણ છે. तमा मा या मलसिद्धि सपना डावाची साता नथी. 'सव्वपाणा जाव जो इणटे समढे मगन् सा प्रारी यावत् सपा सत्वा शुभम સિદ્ધિક પણાથી પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચૂક્યાં છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં અહિયાં ४
-२मा मथ समय नथा. __ 'सेव भंते ! सेव भंते !
तिसावन मा५ देवानुप्रिये मा विषयमा જે પ્રમાણે કહેલ છે, તે સઘળું કથન સત્ય જ છે. હે ભગવન્ આપી દેવાનુપ્રિયનું સઘળું કથન સર્વથા સત્ય જ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ