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भगवती सूत्रे पमिरपि श्याभिः षट्शतानि कर्त्तव्यानि यथा कृष्णलेइयायात यथा कृष्णलेल्या मन्तर्भाव्य अभवसिदिधकस्य द्वितीयं शतं भवति तथैव नीलकापोत तेजसपदमशुक्ललेश्या सन्तर्भाव्यापि शतानि कर्त्तव्यानि तदेवमभवसिदधिकमधिकृत्य सप्तशतानि भवन्ति एकमधिकं पहलेश्यान्तमवेन पातानीति । 'नवर' संचिणा ठिई जव ओहियस तत्र भाणियव्या' नवरं - केवळं विशेषोऽयं यत् संस्थानाऽवंस्थिति काः स्थितिरायुष्यका यथैव औधिक नीललेश्यादिशते कथिता तथैव तेनवरूपेण ज्ञातव्या। नतु कृष्णलेश्यशतवदिति । 'नवरं संचिट्टणा सुकलेस्साए उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तममहियाई' नवरं - केवळ मेतावदेव वैलक्षण्यं यत् संस्थाना-अवस्थितिकालः शुक्कलेश्यायां शुक्लदेश्यशते, उत्कर्षेणैकत्रिंशत्साग
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संज्ञी पञ्चेन्द्रियके सम्बन्ध में द्वितीयशल कहा गया है, उसी प्रकार से नील कापोत, तेजस, पद्म, शुक्ललेश्या इन पदों को जोड़कर भी ६ शत कहे गये हैं । इस प्रकार अभवसिद्धिक मंज़िपञ्चेन्द्रिय जीव को लेकर सातशत हो जाते हैं । जैसे- एक औधिक शतक और ६ लेश्या सम्बन्धी ६ शतक 'नवर' संचिणा टिई जहेब ओहियसए तहेव भाणियन्त्रा' परन्तु यहां जो विशेषता है वह ऐसी है कि यहां अवस्थिति काल और आयुष्यकाल ये दो बातें जैसी अभवमिद्धिक के औधिक नीलादिशत में कही गई है वैसी ही यहां पर कह लेनी चाहिये | कृष्णलेयशत के जैसे इन्हें यहां नहीं कहना चाहिये । 'नवरं संचिणा सुक्कलेस्साए उक्कोसेणं एक्कतीस सागरोवमाई. अंतोमुत्तमम्भहियाई' परन्तु शुक्ललेश्य शतक में उत्कृष्ट से एक
પ્રમાણે કૃષ્ણુલેસ્યાપદ લઇને અભવસિદ્ધિવાળા સનીપચેન્દ્રિયના સ મધમાં भीलुशन वामां आवे छे, मेन प्रभाशे नीस, प्रयोत, तेक्स, पद्म, શુકલલેશ્યાના સબંધમાં તે તે પદેશને જોડીને છ શતકા કહેલા છે. આ રીતે અભવસિદ્ધિક સન્નિ એકેન્દ્રિય જીવને લઈને સાત શતક અને છ વૈશ્યાઓના सधभां शत। थे रीते सात शत है। यह लय है, 'नवर' संचिट्टणा 'ठिई जहेव ओहियसए' तहेव भाणियच्चा' परंतु मडियां ने विशेषय छे, તે એવું છે કે અહિયાં અવસ્થિતિકાળ અને આયુષ્યકાળ આ એ માખતા જે પ્રમાણે અભવસિદ્ધિક સંબધી ઔશ્વિક શતકમાં કહેલ છે, એજ પ્રમાણે છે, તેમ સમજવું. કૃષ્ણવેશ્યા શતકના કથન પ્રમાણે તેને અહિયાં કહેવાતું નથી. 'नर' संचिणा सुक्कलेस्साए उक्कोसेन एक्कतीस सागरोत्रमाई अतो मुहुत्तममहियाई” शुग्सलेश्यामां मे रखे हैं शुश्याशतमां ष्टथी भर्ती