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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श.५ तेजोलेश्य संनिमहायुग्मतम् ६६१ संख्येयभागाधिक सागरद्वयात्मकावस्थान काल कथन मीशानदेव परमायुराश्रित्य ज्ञातव्यमिति । 'एवं ठिईए वि एवं स्थितावपि एवमायुपः स्थितिरपि जघन्यो स्कृष्टाभ्यामेकसमयममाणा पल्योपमासंख्येयभागाभ्यधिकद्विसागरोपमप्रमाणा च भवतीति भावः । 'नवरं नोसनोवउत्ता वा' नवरं तेजोलेग्य संक्षिपञ्चेन्द्रिया नो संज्ञोपयुक्ता वा भवन्तीति । एवं तिसु वि उद्देसएसु' एवमेव त्रिष्यपि प्रथम तृतीय पञ्चमोद्देशकेपि अवस्थिति स्थित्यादे ज्ञातव्यम् 'सेसं तं चेव' शेप-तदतिरिक्त सर्व त्रिदेशकेषु शेषाष्टोद्देशकेषु च तदेव प्रथमशतकोक्तमेव ज्ञातव्यमिति । 'से भंते ! सेव भंते । ति तदेव भदन्त । तदेवं भदन्त । इति ॥
॥ चत्वारिंशत्तमे शतके पंचमं सज्ञिमहायुग्मशतं समाप्तम् ॥४०॥५॥ अवस्थान काल जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से अधिक दो सागरोपम का है ऐसे अवस्थान काल का कल यहां तेजोलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति को लेकर कहा गया है । क्यों कि ईशानदेवलोक के देवों की उत्कृष्ट आयु पल्पोपम के असंख्यातवें भाग से अधिक दो सागरोपम की है। 'एवं ठिईए वि' स्थितिकाल भी अवस्थान हाल के जैसा ही है । 'नवरं नो सन्नोवउत्ता' ये तेजोलेश्यावाले संज्ञि पंचेन्द्रिय जीव नो संज्ञीपयुक्त भी होते हैं। 'एवं तितु वि उद्देसएसु' इसी प्रकार से अवस्थानकाल और स्थिति काल आदि का कथन प्रथम, तृतीय और पंचम इन तील उद्देशकों में भी कर लेना चाहिये 'सेसं तं चेव' इनके अतिरिक्त और लव कथन अवशिष्ट आठ उद्देशकों में ३ तीन और ८-११ उद्देशों में प्रथम शतक में जैसा कहा गया है वैसा ही है। 'सेव भते ! लेव मंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सप सर्वथा सत्य ही है। એક સમયને અને ઉત્કૃષ્ટથી પલ્યોપમના અસ ખ્યાતમાં ભાગથી વધારે બે સાગરોપમને છે. એવા અવસ્થાન કાળનું કથન અહિયાં તેજલેશ્યાની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિને લઈને કહેલ છે. કેમકે- ઈશાન દેવમાં દેવેનું ઉત્કૃષ્ટ આયુ પ. ५मना मस-या माथी पधारे में सागशेपमनु छे. 'एवं ठिईए वि' स्थिति ५ मनस्थान प्रभारी ४ छ. 'एवं तिमुवि देसएसु' मा પ્રમાણે અવસ્થાનકાળ અને સ્થિતિ કાળનું કથન પહેલા, ત્રીજ, અને પાચમાં આ ત્રણ ઉદ્દેશાઓમાં પણ કરી લેવું જોઈએ. આ કથન શિવાય બીજુ સઘળું કથન બાકીના આઠ ઉદ્દેશાઓમાં ૩ અને ૮-૧૧ ઉદેશાઓમાં પહેલા શતકમાં જે પ્રમાણે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે છે.
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मेर १.द.