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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श. २ कृष्णलेश्य कृ. कृ. संनिपञ्चेन्द्रिया ६४९ 1 शत्तमशतकस्य प्रथममोद्देश के कथित तथैवेहापि ज्ञातव्यम् । कियत्पर्यन्तं ? तत्राह 'जाव' इत्यादि, 'जात्र अर्णवखुत्तो' यावदनन्तकृत्वः, अथ भदन्त ! सर्वे पाणा यावत् सर्वे सत्याः कृष्णलेश्य संज्ञि पञ्चेन्द्रियतया समुत्पन्न पूर्वाः किम्, हे गौतम! अनन्तकृत्वः समुत्पन्न पूर्वी: इत्तरपर्यन्तं ज्ञातव्यमिति । एवं सोलस वि जुम्मेसु' एवं कृष्णलेश्य कुन युग्म कृतयुग्मसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां यथा उपपातादिः कथित स्तेनैव रूपेण पोडशसु युग्मेषु कृष्णलेश्य कृतयुग्मम्योजाद् द्वितीय युग्मादारभ्य कल्पोजल्योनपर्यन्तेषु यावदनन्तकृत्य इत्यादिकं वक्तव्यमिति । 'सेवं भंते ! सेवं मंते ! त्ति तदेवं सदन्त ! तदेव भदन्त । इति || जानना चाहिये । और यह कथय यावत् समस्त प्राण यावत् समस्त सत्व अनन्तवार हल रूप से पूर्व में उत्पन्न हो चुके हैं इस पाठ तक ज्यों का त्यों कहलेना चाहिये । 'एवं सोललख वि जुम्सेछु' जिल्ल रीति से यह कृष्णइलेणवाले कृतयुग्म कृतयुग्म संत्री पचेन्द्रियों का उपपात आदि कहा है उat प्रकार से उसी रीति से कोलह युग्मों में- कृष्णलेश्याचा कृतयुग्म ज्योजराशि संजी पचेन्द्रिय रूप हिन्दी युग्म से लेकर फल्पोज कल्पोज राशिप्रति कृष्ण लेणवाले पंजी पचेद्रय के जीवों में समस्त प्राण यावत् नमस्त लरख अनवावार उत्पन्न हो चुके हैं" इत्यादि सब कहलेना चाहिये ।। 'लेव' भते सेवं अंते ! त्ति' हे भदन्त ! जैसा आपने यह कहा है वह सर्वथा हृत्य ही है २ । इस प्रतर कहकर गौतमस्वामीने प्रभुश्री को वन्दना की और नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर फिर वे संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये । કના પહેલા ઉદ્દેશામાં જે પ્રમણે કહેલ છે, એજ પ્રમાણે અહીયા પણું સમજવું. અને આ કથન યાવત્ સઘળા પ્રાણેા સઘળા Õા અનતવાર આ રૂપથી પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચૂકેલ છે, આ ૫૪ સુધી જેમનું' તેમ કહેવુ જોઇએ. ' एवं सोलससु विजुम्मेसु' प्रमाणे भाष्यसेश्यावाणा कृतयुग्भ मृतयुग्भ સ ́જ્ઞી પચેન્દ્રિયાના ઉપપાત કહેલ છે, એજ પ્રમાણે-સાળે યુગ્મામાં કૃષ્ણુલેયવાળા કૃતયુગ્મ ગ્યેજ રાશિપ્રમાણવાળા સની પચેન્દ્રિય રૂપ ખીજા યુગ્મથી લઇને કલ્ચાજ લ્યેાજ રાશિપ્રમાણવાળા કૃષ્ણલેફ્સાવાળા સ'ની પચેન્દ્રિય જીવામાં સઘળા પ્રાથેા ચત્ સઘળા સત્વે અન’તવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયા છે, વિગેરે સઘળુ' કથન કહી લેવુ જોઇએ 'सेव भवे । सेव' भते । त्ति' हे भगवन् याय देवानुप्रिये या विषयभां જે પ્રમાણે કહેલ છે, તે સઘળું કથન સથા સત્ય જ છે, હે ભગવત્ આપનું No 42
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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