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________________ मैन्द्रिका टीका श०३५ अ. शं. ३ नीललेश्यमहायुग्मशतम् 'अद तइयं एगिदियमहाजुम्मसय मूलम् - एवं नीललेस्सेहि वि सयं कण्हलेस्स सयसरिसं एक्कारस उद्देगा तहेव सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥सू० १॥ पणतीसइमे सए तइयं एगिंदिय महाजुम्म सयं समत्तं ॥ ३५-३ ॥ छायाः -- एवं नीललेश्यैरपि शतं कृष्णलेश्वशतसदृशम्, एकादशोदेशकास्वथैव । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इवि ।। Bater पञ्चत्रिंशत्तमे शतके तृतीय मे केन्द्रियमहायुग्मशतं समाप्तम् ||३५|३|| टीका- ' एवं नीललेस्सेहि वि सयं कण्डलेस्ससयसरिसं' एवं नीललेश्येरपि शतं कृष्णलेश्वशतसदृशं ज्ञातव्यम्, यथा- कृष्णलेश्यामन्तर्भाव्य शतमेकेन्द्रिय महायुग्माख्यं निर्मित तथैव नीललेश्यमन्तर्भाव्यापि तृतीय मे केन्द्रियमहायुग्मशतं निर्मातव्यम् | 'एक्कारस उद्देसगा तद्देव' यथैत्र कृष्णलेश्यशते औधिककृतयुग्म कृतशतक ३५ तृतीय एकेन्द्रिय महायुग्म शत | टीकार्थ- ' एवं ' नीललेस्सेहिं वि स कण्हलेस्ससरिसं एक्कारस उद्देगा तहेव सेव भते ! सेवं भते ! त्ति' कृष्णलेश्यावालों के सम्बन्ध में जैसा कृष्णलेइया शतक कहा गया है । उसी रीति से नीलश्यावालों के सम्बन्ध में नीललेश्या शतक भी कहलेना चाहिये जैसे वहां ११ उद्देशक कहे गये हैं वैसे ही यहां पर भी ११ उद्देशक हैं ऐसा समझना चाहिये । तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि जिस रीति से कृष्णलेश्या को आश्रित करके एकेन्द्रिय महायुग्म नाम का शतक निर्मित हुआ है । उसी प्रकार से नीललेश्या को आश्रित करके तृतीय एकेन्द्रिय महायुग्म शतक भी निर्मित कर लेना चाहिये । तथा 'एक्कारस उद्देगा तहेव' कृष्णलेश्मावालों के शत में औधिक ત્રીજા એકેન્દ્રિય મહાયુગ્મ શતકના પ્રભ~~ 'एव' नीलले सेहि' सय' कण्हलेस्सरिस एकार सउहेसगा तद्देव - सेव भवे ! सेव ं भ ंते ! त्ति' हृष्ट्युसेश्यावाणाखाना संम धमां ने प्रभा द्रुष्येश्या शत કહેવામાં આવેલ છે એજ પ્રમાણે નીલલેયાવાળાના સંબધમાં નીલલેશ્યા શતક પણ કહેવુ જોઈએ, ત્યાં જે પ્રમાણે ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાએ કહ્યા છે, એજ પ્રમાણેના ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશા અહિયાં પણ છે તેમ સમજવુ. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-જે રીતે કૃષ્ણુલેશ્યાના આશ્રય કરીને એકેન્દ્રિય મહાયુગ્મ નામનું શતક કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે નીલàશ્યાને આશ્રય કરીને એકેન્દ્રિય સહાયુગ્મ શતક પશુ સમજી લેવુ જોઈએ. તથા 7 ५७९ ܕ
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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