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भगवती सूत्र एरण अभिलावेणं जडेव ओहिओ उद्देसओ जाव तल्लडिsयत्ति' एवमेतेन पूर्वोक्तेनाभिलापेन प्रकारेण यथैवौधिक उद्देशकः चतुखिंशत्तमशतकस्य प्रथमोयावत्तुल्यस्थितिका इति, सर्वसिह औधिक प्रकरणददेव ज्ञातव्यं यावत्तुल्य स्थितिका स्तुल्यविशेषाधिकं कर्म प्रकुवन्तीति भावः । ' एवं एएवं अभिला disorder भवसिद्धिए एगिदिएहि त्रि तहेन एक्कारस उद्देससंजुत्तं छ सयं' एवमेतेनाभिलापेन यथा - अधिक भवसिद्धि सम्बधिं पञ्चमं शतकं कथितं तथैवास्य पष्टशतकस्य औधिकानन्तरोपपन्नक परम्परोपपन्न केत्युदेशकत्रय विशिष्टै केन्द्रि यैरपि तथैवैकादशोदेशक संयुक्तं पष्ठं शतम्, अनन्तरावगाढ परम्परावगाढानन्तराहारक परम्परादारकानन्तरपर्याप्तकपरस्परपर्याप्तक चरमाचरमेत्यष्टौ उदेशका अपि वक्तव्याः तदित्यमेकादशोदेशक संयुक्तं पटं शत निर्मातव्यमिति भावः ॥ इति श्री - विश्वविख्यात जगवल्लभादिपद भूपितवाळत्रह्मचारि - 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री - घासीलाल विविरचितायां 'श्री भगवतीमूत्रस्य' प्रमेयचन्द्रिकाख्यायां व्याख्यायां चतुस्त्रिंशत्तमशतके पष्ठमेकेन्द्रियशतं समाप्तम् ||३४|६||
कथन तक औधिक उद्देशक के जैसा ही जानना चाहिये । इमी आशय को लेकर 'एवं एएणं अभिलावेर्ण जहेच ओहिओ उद्देसओ जाव तुल्ल हियन्ति' सूत्रकार ने ऐसा यह सूत्रपाठ यहां कहा है । 'एवं एएवं अभिलावेणं कण्हलेस भवसिद्धिय एगिदिएहि वि तहेव एक्कारस उद्देससंजुनं छई सयं' इस के अभिलाष प्रकार से कृष्णलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध : में भी ग्यारह उद्देशकों से युक्त यह छट्ठा शतक कहना चाहिये । अर्थात् जिस रीति से औधिक सामान्य अवसिद्विक संबंधी पांचवां शतक कहा गया है उसी प्रकार से इल छडे शतक के औधिक अनन्तरोपपन्नक परम्परोपपन्नक इनतीन
या अभिप्रायथी सूत्रअ ' एवं ' एएणं' अभिलावेण जहेब ओहिओ उद्देओ जाव तुछट्ठियत्ति' या प्रमाणे सूत्रपाठ हे छे. 'ए' एएणं' अभिलावेण कण्हलेस भवसिद्धिय एगि दिएहि वि एक्कारसउदेस संजुत्तं ट्ठ सय" भा પ્રમાણે કૃષ્ણલેશ્યાત્રાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિય જીવેાના સમધમાં પણ ૧૧ અગિયાર ઉદ્દેશાએ આ છઠ્ઠા શતકમાં કહેવા જોઇએ. અર્થાત્ જે પ્રમાણે પર પરાપપન્ન કૃષ્ણલેશ્યાવાળા ભવસિદ્ધિક એકેન્દ્રિયાન ઉદ્દેશો કહેલ છે,