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________________ भगवती टीका --- 'अपज्जत सुडूमढवीकाइए णं भंते । अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! 'अहोलोयखेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते समोहए' अधोलोक क्षेत्रनाया अधोलोकरूपे क्षेत्रे या नाडी- त्रसनाडी, तस्याः बाह्य क्षेत्रे समवहतो मारणान्तिकसमुद्घातं कृतवान् 'समोहणित्ता' समन्हत्य मारणान्तिकसमुद्धातं कृत्वा, 'जे भविए उडूलोयखेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते ' यो भव्यः, ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनाडी पनाडी सा ऊर्ध्वलोक क्षेत्रनाडी तस्या ऊर्ध्वलोक क्षेत्रत्र सनायाः वाले क्षेत्रे 'अपनत्त सुहूमढवीकाइयत्ताए उबपज्जित' अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकतया तादृशपृथिवीकायिकरूपेणोत्वत्तुम् ' से णं भंते! कइसमइएणं विग्गहेगं उववज्जेज्जा' स खलु कतिसामविकेन विग्रहेण उत्पयतेति मश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि' 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिसमइएण वा, चउसमइएण वा, विग्ग हेणं उववज्जेज्जा' त्रिसामयिकेन 'पज्जत सुमपुढची काइए णं भंते!' इत्यादि । - ३७० टीकार्य - हे भदन्त ! जिस अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथिवीकायिक जीवने 'अहो लोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए' अधोलोकस्थित त्रसनाडी से बाहयक्षेत्र में स्थावरनाडी में मारणान्तिक समुद्घात से मरण किया है और 'समोहणित्ता' मारणान्तिक समुद्घात करके 'जे भविए उडलोय खेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्त सुहुमपुढवी काइयत्ताए उववज्जि 'त' ऊर्ध्वलोक में स्थित नाली के बाहर के क्षेत्र में - ' स्थावरनाली अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हुआ है 'से णं भंते! कसम एणं विग्गणं ऊत्रवज्जेज्जा' तो हे भदन्त ! ऐसा वह जीव कितने समयवाले विग्रह से वहां उत्पन्न होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री गौतमस्वामी से कहते है - 'गोयमा! तिसमइएण 'अपज्जत्तसुहुमपुढवीकाइए णं भंते!' इत्याहि टीअर्थ - हे भगवन् के अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी थिए वे 'अहोलोय. खेत्तनालीए वाहिरिल्ले खेत्ते समोहए' मा अधोसम्म रहेसी त्रस नाडीथी महारना क्षेत्रमां भारशान्तिः समुद्घातथी भर रेस छे, भने 'समोहणित्ता' भारशान्तिः सभुद्धात अरीने 'जे भविए उड्ढलोंगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्त सुहुमपुढवीका इयत्ताए स्ववज्जित्तए' सभां रहेस त्रस नाडीना અહારના પ્રદેશમાં પર્યાપ્તક સૂક્ષ્મપૃથ્વીકાયિકપણાથી ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય जनेस छे, 'से णं भंते ! कइ समइरणं विग्गहेण उववज्जेजा' तो हे भगवन् એવા તે જીવ કેટલા સમયવાળી વિગ્રહ ગતિથી ત્યાં ઉત્પન્ન થાય १. मा प्रश्नमा उत्तरमा अनुश्री हे छे - 'गोयमा ! तिसमइएण चउसमइएण मा
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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