SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૮ર્થ भगवती सूत्रे रणभेदमेव दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा ' तद्यथा - 'पुढवीकाइया, एवं एएणं अभिलावेणं तद्देत्र - चउक्कओ भेश्रो जाव वणरसइकाइय त्ति' पृथिवीकायिक एवमेतेनाऽभिलापेन तथैव एतच्छकीय प्रथमशतकवदेव चतुष्कः- चतुष्प्रकारकः सूक्ष्मवादराऽपर्याप्तापर्याप्तरूपो भेदो वक्तव्यः यावद् वनस्पतिकायिका इति । ' परंपरोदन कण्हलेस अपज्जत सुहुमढवीकाइया णं भंते !' परम्परोपपन्न करणश्यापक सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त ! 'कइ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ' कति-कति प्रकारकाः कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ? इति प्रश्नः । भगवानाह - ' एवं एए' इत्यादि । ' एवं एएणं अभिकावेणं जहेब ओहिओ परंपरोववन्नग उद्देसओ तहेब जाव वेदेति' एवम् एतेनाऽभिलापेन यथैवधिकः सामान्यजैसे - 'पुढबीकाइया - एवं एएणं आभिलावेण तहेव चउक्कभ भेओ जाव वण सहकाइयत्ति' पृथिवीकाथिक इस प्रकार से इस अभिलाप द्वारा इसी शक के प्रथम शतक में कहे गये अनुसार इन परंपरोपपन्नक कृष्णलेावाले एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक के जीवों के ४-४ भेद सूक्ष्म, बादर अपर्याप्त और पर्याप्तक रूप से कहना चाहिये । 'परंपरावन्न कण्णलेस्स अपजस सुमपुढवीकायाणं भंते ! कह कम्मपगडीओ पन्नन्ताओ' हे भदन्त ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेइया वाले अप सूक्ष्म पृथिवीकायिकों के कितनी धर्मप्रकृतियों का सत्व कहा गया है ? 'एवं एएणं अभिलावेणं जहेब ओहिओ पर परोववन्नग उद्देसओ लहेब जात्र वेदेनि' हे गौतम | इस अभिलाप द्वारा जैसा माया छे. 'त जहा ' ते मा प्रभा - 'पुढवीकाइया - एवं एएणं' अभिलावेण तहेव चक्कओ भेओ जाव वणस्सइकाइयत्ति' पृथ्वी मा प्रमाणे या અભિપ્રાય દ્વારા એકેન્દ્રિય શતકના પહેલા શતકમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે તે પ્રમાર્ગુ આ પરપપપન્નક કૃદેશ્વાવાળા એકેન્દ્રિય પૃથ્વી કાયિકેાથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સુધીના જીવાના ૪-૪ ચ'ર-ચાર ભેદો સૂક્ષ્મ, ખાદર, અપર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એ રીતે થાય તે તેમ સમજવું. 'पर'पवन कण्डलेस्स अप्पजत्त सुडुम पुढत्रीकाइया णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पन्नताओ' हे भगवन् परं परोपपत्र कृष्णुतेश्यावाणा पर्यास सूक्ष्म पृथ्वीथिने डेंटली धर्म प्रवृतियो वास छे ? 'एवं एए अमिलावेण जहेब ओहिओं पर परोपपन्नग उद्देषओ तहेव जाव वेदेति' डे ગૌતમ ! આ આભિલાપ દ્વારા સામાન્ય રૂપથી પહેલેા ઉદ્દેશે જે પ્રમાણે કહેવામાં
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy