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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०३३ उ. २ सू०१ अनन्तरोपपन्नक ए० निरूपणम् २५९ प्ररूपणीयाः, अनन्तरोपपन्न के केन्द्रियाणाम् पर्याप्तकाऽपर्याप्तकभेदयोरभावेन चतु विषभेदाऽसम्भवात् द्विपदेन सूक्ष्मवादरभेदेनेति कथितम् । सामान्यत एकेन्द्रियाः प्रत्येकं चतुष्प्रकारका भवन्ति सूक्ष्माव - वादराय, सूक्ष्मा अपि द्विविधाः - पर्याप्त कापर्यातका तथा पर्याप्तकवादरा :- अपर्याप्तकवादराय । परन्तु - अनन्तरोपपन्नानां पर्याप्तत्वाऽपर्याप्तत्वभेदो नास्ति । अतोऽत्र द्विपदेन - द्विमकारकेण भेदेनेति कथितम् । 'अणतशेववन्नगमुहुमपुढ वीकाइया णं भंते -!' अनन्तरोपपत्रक सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां भदन्त | 'कइकम्म पगडीओ पन्नत्ताओ' कति प्रकारकाः कर्मप्रकृतयः मज्ञप्ताः कथिता ? इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । - और वनस्पतिकायिक के सूक्ष्म बादर से दो दो भेद होते हैं, क्यों कि जो अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव होते हैं उनमें पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद नहीं होते हैं । इसलिये इनके प्रत्येक के जैसे चार भेद पहिले बताये गये हैं वैसा ये चार भेद इनमें नहीं होते हैं । सामान्य एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार के कहे गये हैं, इनमें सूक्ष्म जीव भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के और बादर जीव भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के बतलाये गये हैं । परन्तु अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद नहीं होते हैं । इसी अभि प्राय को प्रकट करने के लिये 'एवं दुपएण' भेएणं' ऐसा सूत्रपाठ सूत्र कारने कहा है । 'अनंतशेववन्नग सुहुम पुढवीकाइयाणं भते !" हे भदन्त ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीवों के 'कइ कम्म पगडीओ पन्नताओ' कितनी कर्म प्रकृतियां कही गई हैं ? उत्तर में ‘જીવા હાય છે તેમાં પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એ એ ભેદા હોતા નથી. તેથી પ્રત્યેકના ચાર ભેદો પહેલા તાન્યા છે, એ પ્રમાણેના ચાર ભેદે આમનામાં હોતા નથી. સામાન્ય એકેન્દ્રિય જીવ સૂક્ષ્મ અને આદરના ભેદ્યથી એ પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. આમાં સૂક્ષ્મ જીવ પણું પર્યાપ્ત અને અપ્ પ્તના ભેદથી એ પ્રકારના કહેલા છે પરંતુ અનન્તરાપપન્તક એક ઇન્દ્રિય વાળા જીવેાના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એવા બે ભેદો હોતા નથી, આજ अभिप्राय मताववा भाटे 'एव' दुपण भेग' या प्रभानो सूत्रपाठ सूत्रारे ह्यो छे. 'अणतरोववन्नगसुहुम पुढवीकाइयाणं भवे !' डे लगवन् अनतरोपपन्न! सूक्ष्म पृथ्वी अयि लवाने 'कइ कम्मपगडीओ पन्नताओ' डेंटली उर्भ अद्भुतियो કહેવામાં આવી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ગૌતમસ્વામીને પ્રભુશ્રી કહે છે ફ
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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