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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.४ सू०१ कापोतलेश्याश्रित नै, उपपातादिकम् २०१ द्वापरयुग्मकल्योजरूपेषु युग्मेवपि उपपातादि तिव्यः । 'नवरं परिमाण जा. जियवं' नवरं केवलं तचत् युग्मेषु विशिष्टपरिमाणं चतुरष्ट द्वादशमभूति क्षुल्लक कृतयुग्मादि स्वरूपं ज्ञातव्यम् ! केन रूपेग चतुरष्टादिकं परिमाणं ज्ञातव्यं तत्रादपरिमाणं' इत्यादि, 'परिमाणं जहा कण्ह लेस्ल उद्देमा, परिमाणं यथा कृष्णलेश्यो. शके कथितं तथैव इहापि रिविच्य ज्ञातव्यमिति, तथाहि कृतयुग्मकापोतलेश्यस्य चत्वारोऽष्टौ वा, द्वादश चा, पोडश वा, सख्शाता वा, असंख्याता था. व्योजका. पोतलेश्यस्य वयो वा, सप्त वा, एकादश वा, पञ्चदश वा, संख्याता वा, अस। ख्याता वा, द्वापरयुग्मकापोतछे श्यस्य द्वौ बा, षड् वा, दश वा, चतुर्दश वा, एल्योज कापोतलेश्यस्य तु एको वा, पञ्च चा, नव वा, त्रयोदश वा, संख्याता 'नवर परिमाणं जाणियच' परन्तु उन-उन युग्मों में चार, आठ, द्वादश, आदि क्षुल्लककृतयुग्मादिरूप विशिष्ट परिमाणपू”क्त जैसा ही जानना चाहिये, यही बान-'परिमाणं जहा कण्हलेस्स उद्देसए' इस सूत्र द्वारा पुष्ट की गई है । किल रूप से यह चार आठ आदि रूप परिमाण जानना चाहिये ? तो इसके लिये 'परिमाणं जहा कह लेस्स उद्देसए' ऐसा कहा गया है कि कृष्णलेश्या उदेश में जो परिमाण कहा गया है वह यहां पर भी भिन्न-भिन्न रूप से जानना चाहिये । जैसेकायम राशिप्रमित कापोतलेश्यावाले नारक जीव एक समय में चार, आठ, बारह, सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं योजराशि पमित कापोतलेश्यावाले नारक जीव तीन, सात, ग्यारह, पन्द्रह, संख्यात या असंख्यात एक साथ उत्पन्न होते हैं। द्वापरयग्म राशि प्रमित कापोतलेश्यावाले नारक जीव एक साथ दो, छह, दश परिमाण जाणियव्य' ५२'तु त युमामा यार, आ४, १२, बिरे नुसार કતયુમ વિગેરે રૂપ વિશેષ પરિણામ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવું એજ पात-'परिमाण जहा कण्हलेस्स उद्देसए' मा सूत्रा द्वारा पुष्ट ४२वामा - અ વેલ છે કઈ રીતે આ ચાર, આઠ, વિગેરે પ્રકારનું પરિણામ સમજવું. १। २ सय ‘परिमाणं जहा कण्हलेस्स उद्दसए' मा सूत्र५४ र छ. આ સૂત્રપાઠથી એ કહ્યુ છે કે-કૃષ્ણલેશ્યાના ઉદ્દેશામાં જે પરિમાણ કહેવામાં આવેલ છે, તે અહિયા પણ જુદા જુદા પ્રકારથી સમજવું જેમ કે-કૃતયુઆ 'રાશિયુક્ત કાતિલેશ્યાવાળા નરક જી એક સમયમાં ચાર, આઠ, બાર, સોળ સ ગ્યાત અથવા અસ ખ્યાત ઉત્પન્ન થાય છે એ જરાશિ પ્રમિત કાપત લેશ્યાવાળા નારક જી ત્રણ, સાત, અગીયાર, પંદર સંખ્યાત અથવા અ સંખ્યાત એક સાથે ઉત્પન્ન થાય છે. દ્વાપર યુમરાશિ પ્રમાણુ કાપતલેશ્યા ०२६
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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