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________________ '८८८ भगवतीस्त्रे -- भवन्ति इति । एवं 'मउयगरुयलहुया वि मानियवा' एवं कर्कशपर्यायवदेव मृदुकगुरुकलधुका अपि स्पर्शाः पर्यायः सामान्यतो भजनया 'कदाचित् कृता ___- “युग्माः यावत् कदाचित् कल्योजाः । विधानतस्तु कृतयुग्मा अपि यावत् कस्योना - अपि भवन्तीति भावः । 'सिय उसिण निद्ध लुक्खा जहा पन्ना' शीतोष्ण स्निग्ध , रूक्षस्पीः यथा वर्णा विचिन्तिता तयैव शीतोष्णस्निग्धसैक्षस्पर्शपर्यायः । परमाणुपुद्गलादारभ्य अनन्तप्रदेशिका पर्यन्ताः स्कन्धाः स्यात् कृतयुग्मरूपा, - यावत् स्यात् कल्योनारूपा इति । पुद्गलाधिकारादेव पदमप्याह-'परमाणुपोग्गले णं' इत्यादि । 'परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि सड़े अणडे' परमाणुपुद्गलः खल - भदन्त ! कि सार्द्धः अनौं वा अर्द्धन सहितः सार्द्रः यस्यार्दभागः संभवतीत्यया, 'कलिभोगा धि' विधान की अपेक्षा से वे कृतयुग्मरूप भी होती है यावत् कल्पोजरूप भी होती है। 'एवं मउय, गरुये, लटुया वि भाणि. । यच्चा' इसी प्रकार से मृदु, गुरु और लघु स्पर्श पर्याय भी सामान्य से - कदाचित् कृतयुग्मरूप होती है और यावत् कदाचित् कल्योजरूप भी होती है और विधान से भी वे सय इसी प्रकार से कृतयुग्मरूप भी होती हैं यावतू कल्योजरूप भी होती है । 'सिय उसिण निद्ध लुक्खा जहा वना' जिस प्रकार से वर्ण विचारित हुए हैं, उसी प्रकार से शीत, “उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष स्पर्श पर्यायो द्वारा परमाणु पुद्गल से लेकर अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध तक कदाचित् कृतयुग्मरूप होते हैं, यावत् कदाचित् कल्योजरूप होते हैं । अब श्रीगौतमस्वामी पुद्गल के अधिकार को लेकर ही प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-'परमाणुपोगगले णं भंते ! कि सड़े अणड्डे हे भदन्त ! पुद्गल का एक परमाणु क्या जिस का आधा भाग हो सक ' f” વિધાનાદેશની અપેક્ષાથી તેઓ કૃતયુગ્મ રૂપ પણ હોય છે, યાવત કલ્યાજ ३५ ५ ५ छ 'एवं मउय, गरुय, लहया वि भाणियव्वा' से प्रमाणे મૃદુ, ગુરૂ, અને લઘુ સ્પેશ સંબંધી પર્યાયે પણ સામાન્યપણાથી કૃતયુગ્મ રૂપ હોય છે. અને યાવત્ કાજ રૂપ પણ હોય છે. અને વિધાનાદેશથી પણ તે બધા એજ પ્રમાણે કૃતયુગ્મ રૂપ પણ હોય છે. યાવત્ કલ્યાજ ૨૫ पर डाय छे. अर्थात यारे राशी३५.य छे. 'सिय उमिण निद्ध लुक्खा जहा वन्ना' २ प्रमाणे १ समधी ४थन ४२ छे, मे प्रमाणे शात, ઉષ્ણ, સ્નિગ્ધ, રૂક્ષ સ્પર્શ સંબંધી પર્યાયે દ્વારા અનંતપ્રદેશેવાળો સ્કંધ કઈવાર કૂતયુગ્મ રૂપ હોય છે, યાવત્ કેહવાર કાજ રૂપ હોય છે. તેમ સમજવું. હવે શ્રીગૌતમસ્વામી પુલોના અધિકારથી જ પ્રભુને એવું પૂછે છે કે। 'परमाणुपोग्गले णं भंते । किं सड्ढे अण डढे' भगवन् पुनसर्नु मे ५२.
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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