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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.४ सू०९ पुद्गलानां कृतयुग्मादित्वम् ८५६ संख्ययाऽपहारे द्विपात् । 'संखेज्जपएसिए णं, भते ! पोग्गले पुच्छा ? संख्येय प्रदेशिकः खलु भदन्त | पृच्छा हे भदन्त ! संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः किं कृतयुग्मः योजो द्वापयुग्मः कल्योजो वेति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'सिय कडजुम्मे जात्र सिय कलिओगे' स्यात् कृतयुग्मो यावत् स्यात् कल्योजा, संख्यातादेशिकस्कन्धस्य विचित्र संख्यात्वाद् भजनया चातुर्विध्यं भवतीति । 'एवं असंखेज्जपएसिए वि' एवं संख्येयपदेशिकस्कन्धवत् असंख्येयप्रदेशिकस्कन्धो. 'ऽपि भजनया कृत्युग्मादिरूपो भवतीति । 'एवं अणंतपएसिए वि' अनन्तप्रदेयुग्मराशिरूप ही होता है । कृतयुग्मादिरूप नहीं होता है। क्योंकि चार की संख्या से अपहन करने पर अन्त में २ शेष रहते हैं। - 'संखेज्जपएसिए णं भंते ! पोग्गले पुच्छा' अब श्रीगौतमस्वामी ने प्रभु से इस सूत्रद्वारा ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! जो पुद्गल स्कन्ध संख्यातप्रदेशों वाला होता है, वह क्या कृतयुग्मरूप ही हैं ? अथवा योजरूप अथवा द्वापरयुग्मरूप होता है ? अथवा कल्योजरूप होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम ! 'सिय कडजुम्मे जाव सिय कलि भोगे' संख्यातप्रदेशी स्कन्ध विचित्र संख्या: वाला होने से चारों राशिरूप होता है। कदाचित् वह कृतयुग्मराशि रूप भी होता है। कदाचित् वह योजराशिरूप भी होता है। कदाचित् वह द्वापरयुग्मरूप भी होता है और कदाचित् वह कल्पोजराशिरूप भी होता है । 'एवं असंखेज्जपएसिए वि' इसी प्रकार
से संख्यातप्रदेशी स्कन्ध के जैसा असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध भी भजना से : कृतयुग्मादि रूप होता है। 'एवं अणंतपएसिए वि' तथा-इसी प्रकार
યુમ વિગેરે રૂપ લેતા નથી. કેમકે ચારની સંખ્યાથી અપહાર કરવાથી , छेवट २ मे शेष २४ छे. 'सखेज्जपएसिए णं भंते ! पोग्गले पुच्छा। वे | શ્રીગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને એવું પૂછે છે કે હે ભગવન જે પુદ્ગલ સ્કંધ 1 सण्यात प्रशाणा डाय छ, ते शुकृतयुम ३५ डाय छ १२ व्योर ( રૂપ હોય છે? અથવા દ્વાપરયુગ્મ રૂપ હોય છે, અથવા કલ્યાજ રૂપ હોય
છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે. કે-હે ગૌતમ! , 'सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओगे' सभ्यात प्रवेशवाणे ४ वियित्र સંખ્યાવાળે હોવાથી, ચારે રાશિ રૂપ હોય છે. કોઈવાર તે કૃતયુમરાશિ
રૂપ હોય છે કેઈ વાર તે જે રાશિ રૂપ પણ હોય છે, કેઈવાર તે દ્વાપર- યુરમ રાશિ રૂપ પણ હોય છે અને કેઈવાર તે કાજ રાશિ રૂપ પણ
डाय छे. 'एवं असखेज्जपएसिए वि' . प्रभा मथात् सभ्यातशामा