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भगवती सूत्रे
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वर्ष लक्षमिति । एवं संदेहो उनर्जुनिकण माणिकच्ची' एवं कामसंवेध उपयुज्य भणितव्यः कर्तव्यः इत्यर्थः स च कायरांनेधः यत्रोत्कृष्ट स्थितिसंस्तत्रोत्कर्षdissat naणानि मन्यत्र तु असंख्येयानि, अवग्रहणानि एवं क्रमेण कालोऽपि वक्तव्य इति वः युकायमकरणं चतुर्थम् ।
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वायुकायिकस्य पृथिव्यादौ उत्पमिद वनस्पतिकायिकस्य पृथिव्यादौ उत्पादिकमाह- 'जह वणस्तर' इत्यादि, 'ज वणरसकाएदितो उववज्जंति' यदि वनस्पतिकायिकेभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते तदा- 'वणस्मइया आउकाइयगमसरिसा एक लाख वर्ष का काय संवेध यन जाना है। इस प्रकार से यहां 'काय संवेद्दो उवजुंजिऊन आणि शे' कार्यसंवेध उपयोगपूर्वक कहना चाहिये, यह कापसंवेध जहां उत्कृष्ट स्थिति का संभव है वहां वह उत्कृष्ट से आठ भवग्ग्रहण रूप है और अन्यत्र असंख्यात भरग्रहण रूप हैं, इसी क्रम से काल की अपेक्षा काल भी कहना चाहिये, इस प्रकार से यह वायु प्रकरण समाप्त हुआ ||४||
वायुकायिक की पृथिवी में उत्पत्ति प्रकट कर अब वनस्पतिकायिक की पृथिवी में उत्पत्ति आदि प्रकट करने के लिये सूत्रकार 'जड़ वणस्काइएहिंतो उववज्जति' इत्यादि सूत्र का कथन करते हैं- इसमें सर्व प्रथम गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है - हे भदन्त ! यदि वनस्पतिकायिकों से आकर के जीव पृथिवीकायिक में उत्पन्न होना है तो वहां पर गमों की व्यवस्था कैसी है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे भजीने थोडस वर्ष यस वेध जनी लय छे. या शेते गडियां 'काय स्रवेो उजु' जिकण भाणियव्वो' अयसवेध उपयोग ले थे. આ કાયસ વેષ જ્યાં ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિના સંભવ છે, ત્યાં તે ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભવ ગ્રહણ રૂપ છે, અને ખીજે - અસ ખ્યાત ભવ ગ્રહણ રૂપ છે. એજ ક્રમથી કાળની અપેક્ષાથી કાળ પણ કહેવા જોઇએ. એ રીતે આ વાયુકાય પ્રકરણ સમાપ્ત થયુ ૪
વાયુકાયિકની પૃથ્વિીકાયિકમાં ઉત્પત્તિ બતાવીને હવે વનસ્પતિકાયિકની पृथ्विी अयि मां उत्पत्ति विगेरे मताववा भाटे सूत्रार 'जइ वणरसह काइएहि तो उववज्जति' इत्यादि सूत्र उथन पुरे छे. या संधमां सौथी पडेलां गौतम સ્વામીએ પ્રભુએ એવુ' પૂછ્યુ` છે કે-હે ભગવત્ જે વનસ્પતિ કાયિકમાંથી આવીને જીવ પૃથ્વિકાયિકામાં ઉત્પન્ન થાય છે તે તે સબંધમાં ગમેાની વ્યવસ્થા કેવી રીતની છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે-હે ગૌતમ!