SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 650
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३२ : - ' . . . भगवती खलु यत् तत् घनवृत्तम् तत् द्विविधं प्रज्ञप्तम् 'तं जहा' तद्यया 'ओयपएसिए य जुम्म, पएसिए य ओजप्रदेशिकं च युग्मपदेशिकं च 'तत्थ णं जे से ओयपएसिए घणवढे' सम'खलु यत् तद् ओजमदेशिकं घनवृत्तम् ‘से जहन्नेणं सत्तपएसिए सत्तपएसोगारे पम्नत्ते' तव ओजमदेशिक घनवृत्तम् , जघन्येन सप्तमदेशिकम् सप्तप्रदेशावगावं मज्ञप्तम् 'उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगादे पन्नत्ते' उत्कर्षेणाऽनन्त. प्रदेशिकमसंख्येयप्रदेशावगा प्रज्ञप्तम् एतस्य स्थापना आ. नं.५ एकस्य ०. मध्यभागस्थितस्य परमाणो नीचरेका परमाणुः स्थापनीयस्तथोपरि एक ... परमाणुः स्थापनीयः तथा तस्य चतुर्दिक्षु चत्वारः परमाणव स्थापनीयाः, आ. नं.५ असंख्यात प्रदेशों में इसकी अवगाहना होती है। 'तत्थ णजे से घण. बहे से दुविहे पनत्ते' इनमें जो घनवृत्त होता है वह दो प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे-'ओयपएसिए य, जुम्मपएसिए य' ओजप्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक तत्थणजे से ओयपएसिए घणवट्टे' इनमें जो ओज प्रदेशिक घनवृत्त है 'से जहन्नेण सत्तपएसिए सत्तपएसोगाढे पनसे' यह जघन्य से सोत प्रदेशों वाला होता है और सात प्रदेशो में उसकी अवगाहना होती है । 'उक्कोसेण अणतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे' तथा उत्कृष्ट से वह अनंत प्रदेशों वाला होता है, और असंख्यातप्रदेशों में इसकी अवगाहना होती है। इसका आकार संस्कृत टीका में आकृति नं. ५ से दिया है-यहां मध्य भाग में एक परमाणु की स्था पना और करनी चाहिये तथा उसके नीचे और ऊंचें एक एक परमाणु की स्थापना करनी चाहिये एवं उसकी चारों दिशाओ में डाय छे. भने असण्यात प्रदेशमा तनी माना थाय छे. 'तत्थ णं जे से घणवट्टे से दुविहे पन्नत्ते' तमा २ धनवृत्त संस्थान छ त में प्रार्नु ta छ. 'तं जहा' ते मा प्रमाणे छे–'ओयपपसिए य जुम्मपएसिए यो प्रदेश. वायु १ मने युभ प्रशवाणु २ 'तत्थ णं जे से ओयपएसिए घणवदे' तेभारे मा प्रदेशवाणु धनवृत्त संस्थान छे, ते 'से जहन्नेणं सत्तपएसिए सत्तपएसोगाढे पन्नत्ते. न्यथा सात प्रदेशापाणु हाय छे. अने सात प्रदेशमा तेमनी साईना थाय 'छ. 'उक्कोसेणं अर्णतपएसिए अस खेज्जपएसोगाढे' तथा ઉષ્ટથી તે અનંત પ્રદેશોવાળું હોય છે અને અસ ખ્યાત પ્રદેશમાં તેઓની અવગાહના થાય છે, તેને આકાર સં. ટીકામાં આ૦ નં. ૫ માં બતાવેલ છે. અહીંયાં વચલા ભાગમાં એક પરમાણુની સ્થાપના કરવી જોઈએ તથા તેની નીચે અને ઉપર એક એક બીજા પરમાણુ સ્થાપવા જોઈએ. અને તેની ચારે દિશાએ
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy