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________________ ५७८ भगवती सूत्रे 1 कि ठियाई गेव्हइ अठियाई गेवई' तानि किं स्थितानि गृह्णाति अस्थितानि वा. गृह्णाति यावदाकाशक्षेत्रे जीवो विद्यते तदभ्यन्तरे विद्यमानानि यानि पुद्गलद्रव्याणि खानि स्थितानीति कथ्यन्ते, तदभ्यन्तरेऽविद्यमानानि बहि स्थितानि यानि पुगलद्रव्याणि तानि अस्थितानीति कथयन्ते तानि द्रव्याणि पुनरौदारिकशरीरपरिणाम विषेशादाकृष्ण गृहणावं । अथवा यानि द्रव्याणि नैजन्ते तानि स्थितानि यानि द्विपरीतानि तानि स्थितानीति कथ्यन्ते तथा च हे भदन्त ! यो जीवः, औदारिकशरीरं निष्पत्तये यानि पुगलद्रव्याणि आकृष्य गृह्णाति तानि स्थितानि अस्थिवानि वेति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'ठिया'मदत ! जीव 'जाई दव्वाई' जिन पौङ्गलिक द्रव्यों को 'ओरालियसरीरसाऍ गेहह' औदारिक शरीर रूप से ग्रहण करता है 'ताई कि ठियाई गेort अठियाई गेव्हई' लो वह क्या उन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है अथवा अस्थितद्रव्यों को ग्रहण करता हैं जितने आकाशरूप क्षेत्र में जीव स्थित है उतने ही क्षेत्र के भीतर विद्यमान जो पुगलद्रव्य हैं वे स्थित कहे गये हैं। तथा उसके बाहर के क्षेत्र में विद्यमान को द्रव्य हैं वे अस्थित कहे गये हैं । इन अस्थित द्रव्यों को जो वह जीव औदारिक शरीर के परिणाम विशेष से खींचकर ग्रहण करता है, अथवा जो द्रव्यगति रहित होते हैं वे स्थित द्रव्य हैं और जो द्रव्यगति सहित होते हैं वे अस्थित द्रव्य हैं । तथा च- हे भवन्त । जो जीव औदारिक शरीर की निष्पत्ति के लिये जिन पुद्गलद्रव्यों को खींचकर ग्रहण करता है वे स्थित होते हैं अथवा अस्थित होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं हे भगवन् व 'जाइ दव्वाइ' ने पौसि द्रव्याने 'ओरालियस रीरत्ताए गेण्डई' मोहारि शरीर पाथी ग्रह उरे हे 'त'इ' कि ठियाइ गेण्हइ गठियाई શે' તે શુ તે એ સ્થિત-રહેલા દ્રવ્યેને ગ્રહણ કરે છે ? અથવા અસ્થિતં (ન રહેલા) દ્રન્ગેાને ગ્રહણુ કરે છે? આકાશ રૂપ ક્ષેત્રમાં જેટલા જીવ સ્થિત –રહેલા છે, એટલા જ ક્ષેત્રની અંદર રહેલ જે પુદ્ગલ દ્રવ્ય છે. તે સ્થિત કહેવાય છે. તેનાથી બહારના ક્ષેત્રમાં રહેલ જે દ્રવ્ય છે, તે અસ્થિત કહેવાય છે, આ અસ્થિત દ્રવ્યેાને તે જીવ ઔદારિક શરીરના પરિણામ વિશે ષથી ખેંચીને ગ્રહણ કરે છે અથવા જે દ્રવ્યગતિ વગરના હોય છે, તે સ્થિત દ્રવ્ય છે, અને જે દ્રવ્ય ગતિ સાથે હોય છે, તે અસ્થિત દ્રવ્ય છે તથા હું ભગવન્ જે જીવ ઔદ્યારિક શરીરની પ્રાપ્તિ માટે જે પુદ્ગલ દ્રબ્યાને' ખે'ચીને ગ્રહણ કરે છે, તે સ્થિત હોય છે ? અથવા અસ્થિત હાય
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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