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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.१ सु०३ जीवानां योगाल्पवहुत्वम् न्धात् जघन्योत्कर्षभेदाच्च अष्टाविंशतिप्रकारकस्याल्पबहुत्वादि जीवस्थानक विशेषाद्भवतीति । तत्र कतरे जीगः कतरेभ्यो जीवेभ्यो यावद्विशेषाधिका वा अत्र यावत्पदेन अल्पा वा, बहु का वा, तुल्या वा, इत्येतेषां संग्रहो भवतीति पश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम । 'सबत्योवे मुहुमस्स अपज्जत्तगस्त जहन्नए जोए१' सर्वस्तोकः-सर्वेभ्योऽल्पीयान् सूक्षनस्यापर्याप्तकस्य जघन्यको योगः म्रक्षमस्व पृथिव्याः मुमत्वात् तस्य शरीरस्यापि अपर्याप्तकत्वेन असंपूर्णस्यात् , तबाऽपि जघन्यस्य विवक्षितत्वात सर्वेभ्यो वक्ष्यमाणेभ्यो योगेभ्यः सकाशात स्तोकः सर्वस्तोको भवति जघन्यो योगः, स पुनर्वग्रहिक चौदह जीवस्थानों को लेकर २८ अठाइस भेद हो जाते हैं अर्थात् जीव के समान (संक्षेप) से १४ जो भेद कहे गये हैं उनमें योग होता है और यह योग जघन्य और उत्कृष्ट भेद वाला होता है । इसलिये १४ चौदह जीवस्थानों के प्रत्येक स्थान के २-२ योग के भेद का सद्भाव से योग के २८ अठाईस भेद हो जाते है। यहां यावत् शब्दले अल्पयन और तुल्य' इन पदों का संग्रह हुआ है। इसीलिये गौतम ने ऐसा प्रश्न किया है।
गौतम के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं-'गोधमा! 'सम्वत्याने सुहमस्स अपज्जत्त गस्स जहन्नए जोगे' हे गौतम! सूक्ष्म अपर्यासक एकेन्द्रिय जीव का जघन्य योग सब से अल्प होता है क्योंकि सूक्ष्म नामकर्म के उदय से पृथिव्यादिक एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म होते हैं अर्थात् इनका शरीर सक्षण होता है-और अपर्याप्तक होने के कारण वह इनका शरीर अपूर्ण रहना है। इसलिये वह નના દરેક સ્થાનના ૨-૨ બબે ગતા ભેદ થવાથી યોગના ૨૮ અઠયાવીસ ભેદ થઈ જાય છે. અહિયા યાવત્ શબ્દથી અલ્પ, બહુ અને તુ આ પદોને સંગ્રહ થયે છે. તેથી જ ગૌતમ સ્વામીએ આ રીતનો પ્રશ્ન કર્યો छ. गौतम स्वामीना भी प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ है-'सम्वत्थोवे सुहुमस्स अपज्जतगास जहन्नए जोगे' 3 गी14 ! सूक्ष्म १५४४ मेद्रिय વાળા જીવને જઘન્ય ચોગ બધાથી અલ્પ હોય છે કેમકે સૂક્ષમ ન મકર્મના ઉદયથી જઘન્ય પૃવિ વિગેરે એક ઈન્દ્રિયવાળા જીવો સૂક્ષમ હોય છે અર્થાત્ તેઓનું શરીર સૂક્ષમ હોય છે, અને અપર્યાપ્તક હોવાના કારણે તે તેમનું શરીર અપૂર્ણ હોય છે તેથી એ પેગ બીજા યોગ કરતાં જઘન્યની વિવક્ષા હોવાના કારણે બધાથી કમ હોય છે. આ વેગ વિગ્રહગતિ માં જે કાર્ય