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प्रद्रिका टीका श०२४ उ. २४ ०१ सौधर्मदेवोत्पत्तिनिरूपणम्
जघन्योत्कृष्टाभ्यां पल्योपमद्वशत्मकः कालापेक्षया कायसंवेधो भवतीत्यर्यः । 'एवयं एतावन्तं कालं पञ्च द्रयतिर्यग्गतिं सौधर्मदेवगति च सेवेत, तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गत सौधर्मदेव च गमनागमने कुर्यात् इदं मध्यमः स्थाने एक संमिलितो गम इति चतुर्थादारभ्य पृष्ठान्ता गमा भवन्तीति दे स चैव अपणा उकोसकालट्ठिइओ जाओ' स एव असंख्यात वर्षायुष्कपिञ्चे तिर्यग्योनिक एव आत्मना - स्वत्वरूपेणोकृष्ट कालस्थितिको जातः तद आदिएक गमसरिता तिनि गमगा पेयन्ना' आद्यगमसदृशास्त्रयो गमका नेतव्याः प्रथमम
यत् इहापि त्रयोगमा ज्ञातव्या इति । 'नवर' ठिइ कालादेस व जाणेज्जी नंवरम् - केवलं स्थिति कालादेशं च भिन्नभिन्नरूपेण स्वस्वभवमाश्रित्य जानीया. देतावानेव विशेष इति नवमान्ता गमाः ९ ।
काल की अपेक्षा काय संवेध यहां जघन्य से दो पल्पोपम का है और 'क्को से विदो पलिओमाई' उत्कृष्ट से भी वह दो पत्योपमका. है 'एवइय०' इस प्रकार इतने काल तक बहु जीव पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्गति का और सौधर्मदेवगति का सेवन करता है और इतने ही कालतक वह उस दो गति में गमनागमन करता है यहाँ पर मध्य के तीन गुम के स्थान में केवल एक ही गम संमिलित होता है । इस प्रकार चतु गम से लेकर छठे गम तक के गम होते हैं ६ | 3
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'सो चेव अपणा उक्कोसकालडिओ जाओ' वही असंख्यात वषा yes संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव जब स्वयं ही उत्कृष्ट काल की स्थिति को लेकर उत्पन्न होता है और सौधर्मदेवलोक में उत्पन्न होने के Was योग्य होता है तो उस स्थिति में 'आदिल्लगमसरिसा तिनि गमगा STIK ओवमाई' हाजनी अपेक्षाथी यस वैद्य अहिं धन्यथी को पस्थे भने उद्यो छे, मने 'उक्केासेण वि दो पलिओ माई ? ष्टथी ये ते मे मनी है. 'एवइयं ०' ये रीते मेटला 'सुधी से ष पथेन्द्रियतियय प्रति સૌધમ દેવગતિનુ સેવન કરે છે. અને એટલા જ કાળ સુધી તેએ બે ગતિમાં ગમનાગમન કરે છે. અહિયાં વચલા ત્રણ ગમાને સ્થાને કેવળ એક જ ગમ્સ મિલિન થાય છે. એ રીતે આ ચાથા ગમથી લઈ ને છઠ્ઠા ગમ સુધીના ગમા કહ્યા છે. પુલના सो चेव अपणा उक्कोस काल डिइओ जाओ' असण्यात
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આયુષ્યવાળા સન્ની પ’ચેન્દ્રિયતિય થયોનિવાળા છવા પાતે જ ઉત્કંધકામની સ્થિતિને લઇને ઉત્પન્ન થાય છે અને સોધમ દેવલાકમાં ઉત્પન થવાન योग्य हाय तो ते स्थितिभां 'दिल्लमसरिसा 'तिन्ति गमगी गय
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