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________________ "1 "! प्रमेन्द्रका टीका श०२४ उ.२० सू०६ देवेभ्यः पतिर्यग्योनिकेषूत्पातः ३४१ - योनिषु समुत्प तथा 'उक्को सेणं पुत्र कोडो आउएसु' उत्कर्षेण पूर्व कोटयायुकेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिषु समुन्यो । 'सें जत्र पुढीकाइउदेए नासु विगमएस' शेषम् - उत्पादाविरिक्कं परिमाणादिकं यथैव पृथिवो माथिका देश के नवस्वपि गमकेपु, यथा पृथिवी माविको देश के मंत्र मानावित्यं परिमाणादिकं द्वारजात प्रदर्शितम् तथैवात्रापि नवस्वपि गमकेंषु परिमाणादिकं वक्तव्यम् | पृथिवीकाकिमकरणापेक्षा यद्वैलक्षण्यं तद्दर्शयति- 'नवर' इत्यादि । 'नवरं 'नवसु विगमएस जहने दो भवरगहणाई उक्कोसेणं अड्ड महणाई' नवरम् - केवल पृथिवोदेशापेक्षया इदं वैलक्षण्यं यत्नवस्वपि प्रथमादिनवान्तेषु गर्नकेपु कायसं वादेशेन जघन्येन द्वे भवग्रहणे, 'उक्कोसेणं अह भवरगहणाई' उत्कर्षे और 'उको सेणं' उत्कृष्ट से 'पुत्रकोडी आउए० ' १ पूर्वक दि की आयु. वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होना है । 'सेसं जहेब पुढचीकाइय उद्देस नवसु विगमरसु' उत्पाद से अतिरिक्त और संघ परिमाण : आदि द्वारों का कथन जिस प्रकार से पृथिवीकायिकोदेश के नौ गमों में प्रदर्शित किया गया है उसी प्रकार से यहां पर भी नौ गमकों में परि मण आदि द्वारों का कथन करना चाहिये । परन्तु पृथिवीकायिकप्रकरण की अपेक्षा जो यहां के द्वारों में भिन्नता है वह 'नवरं नवसु वि गमए जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है। इस से यह स्पष्ट किया गया है कि यहां प्रथम गम से लेकर नवमें गम तक में कायसंवेध भवकी अपेक्षा जघन्य से दो भवों को ग्रहण करने रूप है और 'उक्को सेणं' उत्कृष्ट से 'अट्ठभवगहणाई' आठ, भवों को ग्रहण करने रूप है । ठिहं कालादेसं च 'उक्कोसेण? त्हृष्टथी 'पुरुषकोडी आउएसु०' ! पूर्वअटना' आयुष्यवाणा यथेन्द्रियतियन्य योनिअम उत्पन्न थाय छे 'सेसं जद्देव' पुढवी काइयउदेखएनवसु विगमएसु' उत्पाद शिवायनुं परिमाणु विगेरे सधणाद्वारातुं स्थन ने રીતે પૃથ્વિકાયિકાના પ્રકરણમાંનત્ર ગમેામાં કહેલ છે. એજ રીતે અહિયાં यथु, नवे शमीमां', 'परिमाणु विगेरे द्वारा संबंधी उथन समभवु लेहो પરંતુ પૃથ્વીકાયિકના પ્રકરણ ઠરતાં અહિના દ્વારામાં જે જુદાપણુ છે, તે સૂત્રકારે 'नवर नत्र वि गमसु जइन्नेणं दो भवग्गहणाई उकोसेणं अट्ठभवगहणाद्द” मासूत्र' द्वारा उडेल ऐसा सूत्रपाठथी से मधु ठे ठे-अडिया, पडेला ગમથી લઈને નવમા ગમ સુધીમાં કાયસ વેધ ભવની અપેક્ષાથી જન્યથી એ भवाने भड ४२वा ३५ छे भने 'उक्कोसेण' थी 'अट्ठभवरगहणाई' आठ T 1 14
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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