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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४.२० सू०६ देवेभ्वः पं० तिर्यग्योनिकेषूत्पातः यावद् वानव्यन्तरः खलु भदन्त ! 'जे भविए' यो भव्यः 'पंचिदियतिरिक्तजोगिएसु उववज्जित्तए' पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकेषु उत्पत्तुम् 'से णं भते' स खलु भदन्त ! 'केवयका लट्ठिएस उववज्जेज्जा' स कियत्कालस्थितिकेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेषु उत्पति प्रश्नः । भगवानाह - ' एवं चेव' एवमेत्र एवम् असुरकुमारवदेव तवापि गमाः ज्ञातव्या इति । 'नवरं' ठिई संदेहं च जाणेज्जा' नवरम् - केवलं स्थिति संवेधं च भिन्नभिन्नतया यथायोगं जानीयादिति नवगमाः ९ । 'जइ जोइसियदेवे हिंतो उबवज्जंति' हे भदन्त ! यदि ज्योतिष्कदेवेभ्य आगत्य पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकेषु उत्पद्यन्ते तदा किं चन्द्रेभ्यः सूर्येभ्यः, ग्रहेभ्यः, नक्षत्रेभ्यः, ३३५ यावत्- 'वाणमंतरे णं भंते !' हे भदन्त ! जो वानव्यन्तर 'जे भनिए पंचिदियतिदिक्खजोणिएस उबबज्जितए' पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होने के योग्य होता है । 'से णं भते । केवइयकालट्ठिएस उवज्जेज्जा' हे भदन्त ! वह कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिययिर्यम्योनिकों में उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'एवं 'चेव' है गौतम ! इस विषय में असुरकुमार के जैसे ही नौ गमक जानना चाहिये | परन्तु 'नवरं विडं संवेहं च जाणेज्जा' परन्तु यहाँ पर स्थिति और संवेध को असुरकुमार के प्रकरण में कही गयी स्थिति और संवेध से भिन्न जानना चाहिये । इस प्रकार से यहां नौ गम हैं । 'जह जोइसियदेवेहितो उववज्जंति' अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं - हे भदन्त ! यदि ज्योतिषिक देवों से आकरके पञ्चेन्द्रियति P समल सेवु', 'जाव' यावत् 'वाणमंतरे णं भंते ! हे भगवन् के वानव्यन्तर देवा 'जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए' ने लव्य यथेन्द्रियतिर्यय योनिअमां उत्पन्न थवाने योग्य होय छे से णं भंते' हे भगवन् 'केवइयकाउट्ठिइएस उषवब्जेज्जा' ते सा उजनी स्थितित्राणा सज्ञी यथेन्द्रियतिर्यथ योनिभां उत्पन्न थाय छे ? या प्रश्नना उत्तरभां अलु हे छे - ' एवं चेव' આ સ.મધમાં અસુરકુમારેના કથન પ્રમાણેના નવ ગમેા સમજવા, પરંતુ 'नवरं ठिङ्गं संवेह'च जाणेज्जा' परंतु मडियां स्थिति भने सवेधना अथनभा અસુરકુમારના પ્રકરણમાં કહેલ સ્થિતિ અને સંવેધના કથન કરતાં જુદાપણું છે, તેમ સમજવુ આ રીતે અહિયાં નવ ગમે સમજવા, 'जइ जोइसियदेवेहिंतो उववज्जंति' हुवे गौतमस्वाभी प्रभुने मे' पूछे છે કે-હે ભગવત્ જો જ્યેાતિષિક દેવામાંથી આવીને સંજ્ઞી પચેન્દ્રિયતિય ચ
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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