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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४७.२० सू०४ सं. पं. ति. तो पञ्चेन्द्रियत्वेनोत्पातः २९३ कथिता सैव प्राप्तिरिहापि मध्यमगमत्रयेष्वपि ज्ञातव्येत्यर्थः 'संवेहो जहेव एत्थ चैव असनिस्स मज्झिमेसु तिसुगमपसु' संवेधोऽत्रैव पञ्चेन्द्रियतिय गुद्देश के असंज्ञिनो मध्यमेषु त्रिषु चतुर्थपञ्चमषष्ठगमेषु तथैव ज्ञातव्यः स च कायसंवेधः, एवं भवादेशेन जघन्यतो द्वो भत्रौ उत्कर्षतोऽष्टौ भवाः कालादेशेन जघन्येन द्वे अन्तर्मुहूर्ते उत्कृष्टत श्रतः पूर्वकोटयः चतुरन्दर्मुहूर्त्ताधिकाः । अयं जघन्यस्थितिकः औदयिकेषु इत्यत्र काय संवेधः जघन्य स्थितिको जघन्यस्थितिकेषु इत्यत्र कायसंवोधोऽन्तमुहूतैः, जघन्यस्थितिकः उत्कृष्टस्थितिकेषु इत्यत्र कायसंवेधः पुनरहू : पूर्व कोटिभिभवतीति ४ - ५ - ६ । ' सो चेत्र अपणा उक्कोसकाल free जाओ' स एव पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक एव यदि स्वयमुत्कुष्टकाल स्थितिकः के चतुर्थ पंचम और षष्ठ गमों में कर लेना चाहिये। 'सवेहो जहेब एत्थ चेव असन्निस मज्झिमेसु तिसु गमएस' संवेध जैसा यहां पञ्च. न्द्रिय तिर्यगुद्देशक में असंज्ञी के मध्य के तीन गमों में चतुर्थ, पंचम और षष्ठ इन गमों में कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये । अर्थात् भव की अपेक्षा वह कायसंवेध जघन्य से दो भवों को ग्रहण करने तक का है और उत्कृष्ट से आठ भवों को ग्रहण करने तकका है। तथा - काल की अपेक्षा से वह जघन्य से दो अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट सेवा अन्तर्मुहूर्त्त अधिक चार पूर्वकोटि का है ( ४ - ५ - ६ ) । इस प्रकार से चौथा, पांचमां, छट्टा गम कहा गया है । 'सोचेब अपणा उक्कोसकालडिहओ जाओ' यदि वही संज्ञी पञ्च. न्द्रियतिर्यग्योनिक जो स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति को लेकर उत्पन्न 1 मेटते हैं योथा, पांथभा, अने छठ्ठा गभेोभां म्ही तेवु' ले मे. 'संवेहे। जहेव एत्थ चैव अनिस मज्झिमेसु तिसु गमएसु' संवेध संमधी उथन के प्रभा અહિયાં પચેન્દ્રિયતિય ચના પ્રકરણમાં અસંજ્ઞીના મધ્યના ત્રણ ગમેામાં એટલે કે ચોથા, પાંચમા અને છઠ્ઠા ગમમાં કહેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ` કથન સમ. જવુ જોઈએ, અર્થાત્ ભવની અપેક્ષાથી તે કાયસ'વેધ જન્યથી એ ભવાને ગ્રહણ કરતાં સુધીના છે અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભવેાને ગ્રહણ કરતાં સુધીના છે. તથા કાળની અપેક્ષાથી તે જઘન્યથી એ અંતર્મુહૂત'ના છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી ચાર અતમ્'હૂત અધિક ચાર પૂ`કોટિના છે. એ રીતે આ ચેાથેા, પાંચમે मने छठ्ठो गभ ह्यो छे. ४-५-६ सो चेव अपणा उक्कोकालठ्ठिइओ जाओ' ले ते संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यय ચેાનિવાળા જીવ પાતે ઉત્કૃષ્ટકાળની સ્થિતિથી ઉત્પન્ન થયેા હાય અને તે
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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