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________________ "Ent 1417 "प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२० सू०३ तिर्यग्भ्यः ति जीवोत्पत्यादिकम् २७३ ܐ 4 1 ..[3 st } priy f " " 1 रधिका इति चतुर्थो गमः ४ । सो चैव जहन्नकाल डिइएस उवन्नो' सएव "जघन्यकाल स्थितिकोऽसंज्ञि पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकजीव एवं यदि, जघन्यकालस्थितिकपञ्च न्द्रिय तिर्यग्योनिकेषु उत्पन्नो भवेत् तदा - 'एस चैव "वत्तन्त्रया" - एपव - चतुर्थंगम सदृशी एवं वक्तव्यता भणितव्या केवलं चतुर्थगमापेक्षया पञ्चमेषु गमेषु 'पलक्षण्यं तद्दर्शयति- 'नवरे' इत्यादि । 'नवरं काढादेसेणं जहन्ने दो 'अतो मुहुता' नंबर कालादेशेन जघन्येन द्वे अन्तर्मुहूर्ते 'उक्को सेण अह अंतो मुहुंता उत्कर्षेणाष्टो अन्तर्मुहूर्त्तानि, 'एवइयं ०" "एतावन्तं कालं यावत्कुत् एतावत्कालपर्यन्तम् उभयगर्ति सेवेत तथा एतावत्कालपर्यनमेव उभयगती गमनागमने कुर्यादिति पञ्चमो गमः ५ । 'सो चैत्र उक्कोस कालट्ठिएस 'उवनी' स "अपेक्षा वह जघन्य से दो अन्तर्मुहूर्त्त का है और उत्कृष्ट से चार अन्त मुहूर्त्त अधिक चार पूर्वकोटि का है। इस प्रकार से यह ४ गम हैपांचवां गम इस प्रकार है- 'सो चेव जहन्न कालडिहए उबवन्नो' यदि वही जघन्यकाल की स्थितिवाला असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक { जीव जघन्य काल की स्थितिवाले मंज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में उत्पन्न "होता है तो वहाँ पर भी 'एस चेव वन्त्तव्वया' यही चौथे-गम जैसी वक्तव्यता केह लेनी चाहिये । परन्तु चतुर्थ गम की वक्तव्यता से पांचवे गमकी "वक्ता में जो भिन्नता है' वह 'नवरं कॉलादेसेणं जहन्नेणं दो अतो""मुत्ता, डेको अट्ठ अंतोमुहुत्ता' 'इस प्रकार से है कि यहां कार्यसंवैध काल की अपेक्षा जघन्य से दो अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से वह आता है । एवइयं कालं.' इस प्रकार से वह जीव इतने काल तक उभय गति का सेवन करता है और इतने ही काल तक છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી ચાર અંતર્મુહૂત અધિક ચાર પૂ`કાટિને, છે આ. या थोथे। गभ उह्यो छे. ४ " • रीते { હવે પાંચમા ગમનું કથન કરવામાં આવે છે - 4/1 1 'सो चैत्र - जद्दन्नकालट्ठिएसु उबवन्नो' ले मे४ असंज्ञी पंचेन्द्रिय તિય ચેાનિવાળા જીવ જઘન્યકાળની સ્થિતિવાળા, સજ્ઞી પ ંચેન્દ્રિયતિય ચ ये निवाणायामां उत्पन्न थाय छे, तो ते संभधमां या 'एस चैव चचन्वया' આ ચોથા ગમના કર્થન પ્રમાણેનું કથન કરી લેવું. પરંતુ ચેાથા ગમનાથન ४२तां पांचभागभन्न उथनमा नुहाई छे, ते 'नवरं कालादेसेणं जहन्नेण दो तो मुहुत्ता, उक्कोसेणं अट्ठ अतोमुहुत्ता' तेथे प्रभानु मडियां કાયસ વેધ કાળની અપેક્ષાધી જઘન્યથી એ અંતર્મુહૂત'ના છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ते आहे अंतर्मुहूर्त'नो छे, 'एवइयं काल' सा रीते ते व सारदा आज 4 م 1 1 , ft
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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