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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ सु०४ जघन्यस्थितिकनैरयिकाणां नि० ३९५ अध्यवसानस्थानानि अमशस्तान्येव अन्तर्मुहूर्त्तमात्रस्थितिकत्वात् दीर्घस्थिते विविधान्यपि अध्यवसायस्थानानि संभवन्ति कालस्य वहुत्वात् । अनुवन्धश्च स्थितिसमान एवेति । कियत्पर्यन्तं तानि नानात्वानीत्याह-'जाव' यावत् ‘से णं भंते' इत्यादि सेवना गत्यागतिस्त्रपर्यन्तमिति । तदेवाह-'से ण भंते' इत्यादि । 'से गं भंते' स खलु भदन्त । 'जहन कालद्विइयपज्जत्तमपन्निपंचिदियतिरिक्ख. जोगिए' जघन्यकालस्थितिकः पर्याप्तासंज्ञिपश्चेन्द्रियतिर्ययोनिका प्रथमम् ततश्च ततो मृत्वा 'उक्कोसकालद्विइयरयणप्पभापुढविनेरइए' उत्कर्ष कालस्थितिकरत्नपभानारकपृथिवी सम्बन्धिनैरयिको जाता, तदनन्तरं तस्मात् नारकस्थानात् विनिामृत्य 'पुगरवि जहन्नकालट्ठियपजत्तभसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए' पुनरपि जघन्यकालस्थितिकपर्यातासंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकोऽभवत् 'त्ति' इति-एवं यहां अप्रशस्त ही होते हैं। दीघस्थिति में ही दोनों प्रकार के अध्यवसाय स्थान होते हैं क्योंकि वहां पर काल की बहुत्ता होती है, तथा अनुबन्ध भी यहां स्थिति के जैसा ही होता है, पूर्वोक्त जैसा यह सब कथन सेवना एवं गति आगति सूत्र तक ग्रहण करना चाहिये, यही बात सूत्रकार 'से णं भंते !' जहन्नकालट्ठियपज्जत्तअसन्नि पंचिदियतिरिक्खजोणिए' इत्यादि प्रश्नोत्तर रूप कथन द्वारा प्रकट करते हैं-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! वह जघन्य काल की स्थितिवाला पर्याप्त असंज्ञीपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीव मरकर यदि 'उक्कोसकालद्विाय रयणप्पभापुढवि०' उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथवी के नैरयिकों में उत्पन्न हो जाता है और फिर वहां से निकल कर वह पुनः जघन्य काल की स्थिति वाला पर्याप्त સ્થિતિવાળું હોવાને કારણે અહિયાં અપ્રશસ્ત જ હોય છે દીર્ઘસ્થિતિમાં જ અને પ્રકારના અધ્યવસાન સ્થાન હોય છે. કેમકે ત્યાં કાળનું અધિકપણું હોય છે. અને અનુબંધ પણ સ્થિતિ–પ્રમાણે જ હોય છે. પહેલાં કહ્યા પ્રમાણેનું આ તમામ કથન સેવન અને ગતિ આગતિ સૂત્ર સુધી ગ્રહણ કરવું नये. मे पात सूत्रारे 'सेणं भवे ! जहन्नकालठ्ठिइयपज्जत्त-असन्नि पंचिंदियतिरिक्खजाणिए' त्या प्रश्नोत्तर ३५४थन द्वारा प्रगट यु छઆમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછ્યું છે કે-હે ભગવન જઘન્યકાળની સ્થિતિવાળો તે પર્યાપ્ત અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ નીવાળો જીવ મરીને ने 'उकोसकालछिइयरयणप्पभा पुढवी.' ge स्थितिवाणा २नमा विना રચિકેમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય અને તે પછી ત્યાંથી નીકળીને તે ફરીથી જ.
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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