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________________ प्रमेयसन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ सू०४ जघन्यकालस्थितिकनैरयिकाणां नि० ३९१ न्तर्मुहूर्तमात्रमेव' एतद्भिन्नमुत्पादपरिमाणसंहननादिकं सर्वमपि पूर्वपकरण कथितमेव ज्ञातव्यम्, कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाब' यावत् 'से णं भंते !' इत्यादि सेवनागत्यागतिसूत्रपर्यन्तमिति, तदेवाह-'से ण भंते' स खलु भदन्त ! 'जहन्नकालहिइयपज्जत्तभमनि पंचिंदियतिरिक्खजोणिए' जघन कालस्थितिकपर्याप्तासंक्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः प्रथमम् तदनन्तरं ततो मृत्वा 'जहन्नकालठिइए रयण. प्पमापुढवीए नेरइए' जघन्यकालस्थितिकरत्नपभापृयवीनरयि कोऽभूत् 'पुणरविजहनकाल टिश्यपज्जत्ताऽसनिपंचिंदियतिरिक्खजोणिएत्ति' पुनरपि नरकानि मृत्य जयन्यकालस्थितिकपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक इति-एवं क्रमेण क्रियत्कालपर्यन्तम् जघन्नस्थितिपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्गति सेवेत कियत्कालअप्रशस्त होते हैं, अनुबन्ध अन्तमुत्तमात्र होता है, इनसे भिन्न उत्पाद, परिमाण, संहनन आदि सपका कथन पूर्व प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये, और यह सेवना गत्यागति सूत्र तक यहां ग्रहण करना चाहिये, यही बात आगे के सूत्रपाठ द्वारा सूत्रकार ने प्रकट की है-से णं भंते! जहन्नकालट्ठिय पज्जत्त असनिपंचिदियतिरिक्खजोणिए जहन्नकालठिाय रयणप्पभापुढवीए नेरइए' पुणरवि जहन्नकालट्ठिाय पज्जत्ताऽमन्त्रिपंचिंदियतिरिक्ख. जोणिएत्ति' गौतम ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! वह जघन्य कालकी स्थिति वाला पर्यास असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च मरकर यदि जघन्य काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथिवी के नैरयिकों में उत्पन्न हो जाता है और पुनः वहां से मरकर-निकलकर वह जघन्य वाल की स्थितिवाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च हो जाता है-इस क्रम से वह कितने कालतकतियञ्च गति में और नरकगति में गमन કહેવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણે સમજવું. અને તે ગતિ અને આગતિ સુધી અહિયાં ગ્રહણ કરવું જોઈએ. અને એજ વાત આ આગળના સૂત્રપાઠદ્વારા सूत्रारे प्रगट ४२ छ 'से णं भंते ! जहन्नकाल दिइयपज्जत्तअसन्निपचिदिय तिरिक्खजोणिए, जहन्नकालद्विइयरयणप्पभा पुढवीए नेरइए' गौतमस्वामी આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુને એવું પૂછયું છે કે- હે ભગવન જઘન્ય કાળની સ્થિતિ વાળ તે પર્યાપ્ત અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ મરીને જે જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા રત્નપ્રભા પૃથ્વીના રિયિકમાં ઉત્પન્ન થાય અને ફરીથી ત્યાંથી મરીને અર્થી નીકળીને તે જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા પર્યાપ્ત અસંજ્ઞી પચેન્દ્રિય તિર્યંચ થઈ જાય તે આ ક્રમથી તે કેટલા કાળ સુધી તિર્યંચ ગતિમાં
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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