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________________ प्रेमैयन्द्रिका टीका श०३४ उ.१ सू०४ जघन्यकालस्थितिकनैरयिकाणा नि० ३८७ सानानुबन्धातिरिक्तं परिमाणसंहनादिकं सर्वमपि पूर्वदेव ज्ञातामिति से गं भंते । स खलु पर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः खलु भदन्त ! प्रथमम् 'जहन्न कालटिइए' जघन्यकालस्थितिका 'पज्जत्तप्रसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए' पर्याप्ताऽसंक्षिपश्चन्द्रियतिर्यग्योनिकोऽभवत्, तदनन्तरं मृत्वा 'रयणप्पभाए पुढवीए नेरइए' रत्नप्रभापृथिव्यां नैरथिकोऽभूत, 'पुगरवि पज्जत्तासन्निपचिदियतिरिक्खजोणिएत्ति' पुनरपि नरकानिामृत्य पर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकइति, एवं कमेण परंपरया 'केवइयं कालं से वेज्जा' कियन्तं कालं तिर्यग्योनि नरकगति च सेवेत, 'केवइयं कालं गइरागई करेज्जा' "कियत्कालपर्यन्तम् एवं क्रमेण गत्यागती-गमनागमने कुर्यादिति प्रश्नः । उत्तरमाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'भवादे. सेणं' भवादेशेन-भवप्रकारेण 'दो भवग्गहणाई द्वे भवग्रहणे एकत्र भवे पर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको द्वितीये नारको नरकानिःसृतः सन् अनन्तरतया पन्ध यहां अन्तर्मुहूर्त का है 'सेसं तं चेव' इन तीन भिन्नताओं के सिवाय बाकी का और सब कथन परिमाण सम्बन्धी एवं संहनन आदि पूर्वोक्त जैसा ही है । अघ गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-से णं भंते ! 'जहन्नकालहिइए पज्जत्तप्रसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणिए रयणप्पभा० जाव करेज्जा' हे भदन्त । जघन्य कालकी स्थिति वाला वह पर्याप्त असंज्ञो पंचेन्द्रिय तियश्च यदि मरकर रत्नप्रभा पृथिवी का नरयिक होता है और फिर से वहां से निकल कर वह पुनः पर्याप्त असंज्ञी पञ्चन्द्रियतिर्यश्च होता है तो इस स्थिति में वह उस गति का कबतक सेवन करता है-कब तक वह गमनागमन करता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ।' हे गौतम । 'भवादेसेणं दो भवग्गहणाई' भव प्रशस्तपा भने सशस्त समवे छे. 'अणुबंधे। अंतो मुहुत्त' मलियां भनुम अतभुइतना छ. 'सेसं तं चेव' मात्र सिन्नता र माडीन બીજુ તમામ કથન પરિણામ સંબંધી અથવા સંહનન સંબંધીનું તમામ કથન પૂર્વોક્ત પ્રમાણે જ છે. તેમ સમજવું. व गौतमस्वामी प्रसुने से पूछे छे , 'से णं भंते । जहन्नकालदिइए पज्जत्तभसन्निपचि दियतिरिक्खजाणिए रयणप्पभा० जाव करेजा' सस. વન જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળે તે પર્યાપ્ત અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રય તિય"ચ જે મરીને રાનપ્રભા પૃથ્વીને નરયિક થાય અને ફરી ત્યાંથી નીકળીને તે ફરીથી પર્યાપ્ત અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ થાય તે આ સ્થિતિમાં તે એ ગતિનું સેવન કયાં સુધી કરતા રહે છે ? અને કયાં સુધી તે ગામના ગમન અવર११२ ४२ छ ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभु ४० के ४-'गायमा । गौतम! भवादेसेणं दो भवगहणाई' सनी अपेक्षा ते मे स सूची मने 'काला
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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