SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ भगवती सूत्रे 9 'मूलरूवेणोत्पद्येरन् एवं क्रमेग कियत्कालपर्यन्तं मूलं सेवेयुस्तथा कियत्कालपर्यन्तं गमनागमनं च कुर्युरिति प्रश्नः । उत्तरम् - ' एवं जहा उप्पलुदेसे' एवं यथा उत्पलोदेशके एकादशशतकस्य प्रथमोद्देशके यथा कथितम् तथैवेहारि ज्ञातव्यम् भवादेशेन जघन्यतो द्वे भवग्रहणे उत्कृष्टतोऽसंख्यातनग्रहणानि, कालादेशेन जघन्यतो द्वे अन्तर्मुहूर्ते, उत्कर्षेण असंख्येयं कालं यावत् तत्र तिष्ठेयुः गमनागमनं च कुर्युरिति । 'एएवं अभिलावेगं जाव मणुस्सजीवे' एतेन अभिलापेन यावत् मनुष्य जीवः, अत्र यात्रत्पदेन अप्तेजो वायुवनस्पति द्वित्रि चतुरिन्द्रिय तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां ग्रहणं भवति एवमनेनैव क्रमेण तेपां शाल्यदि को छोड़कर पुनः सूलरूप से उत्पन्न हो जाते हैं तो वे इस प्रकार से कितने कालतक मूलरूप में रहते हैं और किनने कालतक गमनागमन करते रहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं 'एवं जहा उपलुद्देसे' हे गौतम | इस विषय में जैसा ११ वे शतक के उत्पल उद्देशक में जैसा कहा गया है उसी प्रकार का कथन यहां पर भी जानना चाहिये । भत्र के उद्देश से जघन्य से दो भवग्रहण है और उत्कृष्ट से असंख्यात काल है । इतने कालक और भवनक वे वहां गमनागमन करते रहते हैं । 'एएणं अभिलावेणं जाव मणुस्सजीवे' इसी प्रकार ऐसा यह भी कथन जानना चाहिये कि उन झाली आदि के सूत्र में स्थित जीव यदि अकाय, तेजस्काय, वायुकाय. वनस्पतिकाय-द्वि, त्रि, चतुदन्द्रिय और पंचेन्द्रियतिर्यच एवं मनुष्य इनके जीध रूप से उत्पन्न हो जाते हैं और / 4 1 પર્યાયને છેડીને ફરીથી મૂળરૂપે ઉત્પન્ન થઈ જાય તે તેએ આ રીતે કેટલા ! સમય સુધી મૂળરૂપથી રહી શકે છે? અને તે પછી કેટલા કાળ સુધી ગમ नागभन-भावन्न र्या रे छे ? या प्रश्नमा उत्तरमा अलु हे छे -' एवं जहां उप्पलुसे' हे गौतम या विषयभां ११ अगीयारमा शताना उत्यस ઉદ્દેશામાં જે પ્રમાણે કહ્યું છે, એજ રીતનું કથન અઢીંચાં પણ સમજવું ભવના ઉદ્દેશથી જઘન્યથી એ ભવ ગ્રહણુ કરેલ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ અસ ́ખ્યાત ભવ ગ્રહણ કરેલ છે. કાલના ઉદ્દેશથી જઘન્ય છે અન્તમૂર્હુત ગ્રહણુ કરેલ છે, અને ઉત્કૃષ્ટ અસંખ્ય કાળ છે. એટલાકાળ સુધી અને ભવ સુધી તેમે ત્યાં गमनागमन-भादन कुरता रहे छे, " एषणं अभिलावेण जान मणुस्सजीवे એજ રીતે આ પ્રમાણેનુ' કથન પણુ સમજવુ' કે–તે શાલી વિગેરેના મૂળમાં रडेला लवा ले अयूहाय, तेनस्साय, वायुभय, वनस्पतिठाय, -मे-त्र यार ? ઇન્દ્રિય અને પાંચ ઈન્દ્રય તિય ચ, મનુષ્યના જીવરૂપે ઉત્પન્ન થઇ જાય છે,
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy