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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२० उ०३ सू०१ प्राणातपीतादि आत्मपरिणामनि० ५३१ नान्यत्र आत्मनः परिणमन्ति, अत्र यावत्पदेन प्रश्नसूत्रोक्ता सर्वे ग्राधाः, हे 'गौतम ! माणातिपातादारभ्यानाकारोपयोगपर्यन्ताः तथा ये एतदन्यप्रकाराः आत्मविशेषणानि सर्वे ते आत्मव्यतिरिक्तस्थले न भवन्ति किन्तु आत्मन्येव एतेषां परिणामो भवतीत्युत्तरपक्षाशयः । इतः पूर्व माणातिपातादय आत्मधर्मकथिताः अतः परं कथंचित् आत्मधर्मा एव वर्णादिस्पर्शान्ताः विचार्यन्ते-'जीवे ण भंते' इत्यादि, ___'जीवे णं भंते !' जीवः खलु भदन्त ! 'गम्भं वक्कममाणे गर्भ व्युत्क्रामन् गर्ने उत्पद्यमान इत्यर्थः 'कइबन्ने कइगंधे' कतिवर्णः कतिगन्धः कतिरसः कतिस्पर्शः ? हे भदन्त ! गर्भ समुत्पद्यमानो जीवः कियता वर्णगन्धरसस्पर्शस्थ आघाए परिणमलि' हां, गौतम ! प्राणातिपात से लेकर अनाकारो. पयोग पर्यन्त जो धर्म है वे तथा इसी प्रकार के जो और भी आत्मा का विशेषणरूप धर्म हैं वे सघ आत्मव्यतिरिक्त स्थल में परिणमित नहीं होते हैं किन्तु आत्मा में ही इनका परिणाम होता है ऐसा यह उत्तर पक्ष का आशय है। माणातिपात आदिक आत्मा के धर्म हैं ऐसा प्रति. पादन इससे पहले किया जा चुका है अब इसके बाद ऐसा विचार करना है कि वर्णादि से लेकर स्पर्श तक के सब आत्मा केधर्म ही हैंगौतम ने इसी बात को प्रभु से यों पूछा है-'जीवे णं भवे । गम्भं वक्कममाणे कावन्ने, कहगंधे' हे भदन्त ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव कितने वर्णों वाला कितनी गंधों वाला कितने रसों वाला और कितने स्पर्शों वाला होता है ? पूछने का तात्पर्य ऐसा है कि गर्भ में उत्पन्न होता हुभा जीव कितने वर्ण गंध रस स्पर्शरूप परिणाम से परि. -'हंता गोयमा! पाणाइवाए जाव खव्वे ते णण्णस्थआयाए परिणमंति' है। ગૌતમ! પ્રાણાતિપાતથી લઈને અનાકારોપયોગ સુધીના જે ધર્મો છે, તે બધા આત્માથી ભિન્ન સ્થાનમાં પરિણમતા નથી. પરંતુ આત્મામાં જ તેનું પરિણમન થાય છે. એ આ ઉત્તરપક્ષને અભિપ્રાય છે. પ્રાણાતિપાત વિગેરે આત્માના ધર્મ છે. એવું પ્રતિપાદન પહેલ કરવામાં આવેલાં છે. હવે એ વિચાર કરવામાં આવે છે કે વર્ષથી લઈને સ્પર્શ સુધીના બધા જ આત્માના જ ધર્મો છે. ગૌતમ સ્વામીએ એજ વાત પ્રભુને આ નીચે પ્રમાણે પૂછી छे. 'जीवे ण भंते ! गम्भं वक्कममाणे कइवण्णे, कइगंधे स मापन થનારા છ કેટલા વર્ષોવાળા કેટલા ગધેવાળા કેટલા રસવાળા અને કેટલા સ્પર્શીવાળા હોય છે? પૂછવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–ગમાં ઉત્પન્ન થતે જીવ
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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